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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार
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समाधियुक्त पुरुष सदा आत्मतुष्ट रहता है। वस्तुत: वही भिक्षु है-भिक्षु कहे जाने योग्य है।
जो शरीर से संवृत हैं—दैहिक चंचलता-रहित हैं, वाणी से संवृत हैं—वाचिक चंचलता-रहित हैं, मन से संवृत हैं—मानसिक चंचलता रहित हैं, वे धीर-धर्यशील पुरुष परिसंवृत होते हैं-सुस्थिर एवं सुसमाहित होते हैं।'
साधक लाभ-प्राप्ति, अलाभ-अप्राप्ति, अयश-अपयश, अपकीति, कीर्ति-यश, निन्दा, प्रशंसा, सुख एवं दुःख में सदा समान रहता है।
यदि परिपक्व-कुशल, बुद्धिशील, धैर्यवान् सहयोगी-साथी न मिले तो विजितजीते गये राष्ट्र को छोड़कर जाने वाले राजा की ज्यों साधक गेंडे का-सा पराक्रम लिये साधना की यात्रा पर चलता जाए।
साधना की यात्रा पर एकाकी विचरण करना-चलते चलना श्रेयस्कर है । मूर्ख का सहायक या सहयोगी के रूप में प्राप्त होना उचित, हितकर नहीं है। अतः साधक अल्पोत्सुक होता हुआ-उत्सुकता एवं आसक्ति को क्षीण करता हुआ गजराज की ज्यों आत्मोल्लास-मस्ती लिये विचरण करे, कदापि पापाचरण न करे।
___ भिक्षु विकाल में-- अनुपयुक्त समय में भिक्षादि हेतु बाहर न घूमे। वह समुचित
१. हत्थसञतो पादसतो ,
वाचाय सञतो सञतुत्तमो। अज्झत्थरतो समाहितो एको, सन्तुसितो तमाहु भिक्खू ।।
-धम्मपद २५.३ २. कायेन संवुता धीरा, अथो वाचाय संवुता। मनसा संवुता धीरा, ते वे सुपरिसंवुता ॥
-धम्मपद १७.१४ ३. तहेव लाभे नालाभे, नायसे न च कित्तिया । न निन्दापसंसाय, न ते दुक्खे सुखम्हि च॥
--थेरगाथा ६६७ ४. नो चे लभेथ निपकं सहायं,
सद्धि चरं साधु विहारि धीरं। राजा व रठं विजितं पहाय, एको चरे खग्गा विसाण कप्पो॥
-सुत्तनिपात ३.१२ ५. एकस्स चरित सेव्यो, नत्थि बाले सहायिता। एको चरे न च पापानि कयिरा, अप्पोस्सुक्को मातङ्ग र व नागो।।
-धम्मपद २३.११
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