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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
कर डालता है ।"
जो स्थितात्मा - आत्मसंयमयुक्त पुरुष ऋद्धि-सम्पत्ति, वैभव, सत्कार, पूजाप्रशस्ति का परित्याग कर देता है, जो अनीह है- आसक्ति वर्जित है, वही वास्तव में भिक्षु है ।
जो सुख -- अनुकूल - वेदनीय, दुःख --- प्रतिकूल वेदनीय को समभाव पूर्वक सह जाता वही भिक्षु है । 3
भिक्षु की अपनी विशेषता होती है, वह कभी हास्योत्पादक कुचेष्टाएँ - हंसी, मसहै, खरी आदि नहीं करता । *
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विगतभय - निर्भीक, निःसंशय, बुद्ध -- बोध-युक्त - प्रज्ञाशील अन्तेवासी गुरुजन कठोर अनुशासन को भी अपने लिए हितकर एवं लाभदायक मानते हैं, वही क्षान्तिमय आत्मशुद्धिप्रद पद --- अनुशासन मूढ़ों अज्ञानियों के लिए द्वेष का कारण बन जाता है।
जो लब्ध--- प्राप्त हुए कान्त - कमनीय, प्रिय भोगों का स्वाधीनता से स्वेच्छापूर्वक परित्याग कर देता है, वास्तव में वही त्यागी कहा जाता है ।
जैसे मेरु पर्वत वायु के झोंकों से ही आत्मगुप्त - आत्म-नियन्त्रित साधक सहता जाता है । "
अप्रकम्पित रहता है- जरा भी हिलता नहीं, वैसे परिषदों- बाधाओं, विघ्नो को अविचल रूप में
जो हस्त संयत, पाद संयत तथा वाक्संयत है, जो अपने हाथ, पैर और वाणी का संयम के साथ व्यवहार करता है, वह उत्तम संयमी है । वह अध्यात्म-रत, समाहित
१. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ - सूत्रकृतांग १.८.१६
सक्कारण पूयणं च, च ठिअप्पा अणि
जे स भिक्खू ।
— दशवैकालिक सूत्र १०.१७
२. इढि च
३. समसुह - दुक्ख सहे य जे स भिक्खू ।
[ खण्ड : ३
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- दशर्वकालिक सूत्र १०.११
-
४. ण यावि हासं कुए जे स भिक्खू ।
— दशकालिक सूत्र १०.२० ५. हियं विगयभया बुद्धा, फरुसं पि अणु सासणं । वेस्सं तं होइ मूढाणं,
खंतिसोहिकरं पयं ॥ —उत्तराध्ययन सूत्र १.२६ मोए, लद्धे वि पिट्ठिकुव्वइ ।
६.
जे य कंते पिए साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ ॥
— दशवेकालिक सूत्र २.३
७. मेरुव्व वाएण अकंपमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ।
- उत्तराध्ययन सूत्र २१.१६
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