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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार यदि निपुण-कुशल, गुणाधिक-गुणों में अपने से, अधिक, उन्नत अथवा गुणों में अपने सदृश सहयोगी न मिले तो साधक पाप-कर्मों का वर्जन करता हुआ, काम भोगों में आसक्त न रहता हुआ एकाकी ही जीवन-यात्रा में आगे बढ़ता जाए।'
भिक्ष उचित समय पर-जिस गांव या नगर में भिक्षा का जो उपयुक्त समय हो, उसी में मिक्षार्थ निष्क्रमण करे-बाहर निकले, उचित समय पर प्रतिक्रान्त हो-भिक्षा लेकर वापस लौट आए। अकाल का-अनुपयुक्त समय का वर्जन कर, उपयुक्त समय मे करने योग्य भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि कार्य समीचीनतया करे।२।
निर्ग्रन्थों-असंयममय ग्रन्थिवजित श्रमणों--भिक्षुओं की अल्पेच्छा-इच्छाओं का अल्पीकरण-सन्तोष ही उनके लिए प्रशस्त-उत्तम है।'
लाभ होने पर-अभीप्सित आहार आदि प्राप्त होने पर भिक्षु मद-अहंकार न करे, अलाभ होने पर-इच्छित आहार आदि न मिलने पर शोक न करे। यदि अधिक परिमाण में प्राप्त हो तो संचय-संग्रह न करे। अपने को सदा परिग्रह से पृथक् रखे।
यदि साधक को कभी भिक्षा प्राप्त न हो सके-आहार आदि न मिल सके तो उसे वेदना-मन:क्लेश नहीं मानना चाहिए, दुःखित नहीं होना चाहिए। यदि मिल जाए तो उसे विकत्थना-प्रशंसा नहीं करनी चाहिए— अपने को धन्य नहीं मानना चाहिए, देनेवाले का कीर्ति-कथन नहीं करना चाहिए। ऐसे उत्तम आचार का धनी भिक्षु वास्तव में पूजनीय
जैसे कछुआ अपने अंगों को अपनी देह में समाहृत कर लेता है–समेट लेता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष अध्यात्म भावना द्वारा अपने पाप-कर्मों को समेट लेता है, उन्हें अपगत
१. न वा लभिज्जा निउणं सहायं,
गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एगो वि पावाई विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो॥
-उत्तराध्ययन सूत्र ३२.५ २. कालेण णिक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे। अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥
-दशवकालिक सूत्र ५.२.४ ३. अप्पिच्छा समणा निग्गंथाणं पसत्था।
-भगवती सूत्र १.६.२१ ४. लाभो त्ति ण मज्जेज्जा, अलाभो त्ति ण सोएज्जा, बहुं पि लवु ण णिहे । परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा।
-आचारांग सूत्र १.२.५.३ ५. अलद्धयं णो परिदेव इज्जा, लद्धण विकत्थयई स पुज्जो।
-दशवकालिक सूत्र ९.३.४
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