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तत्त्व : आचार : कथानुयोग
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सन्दर्भ में भारतीय जीवन के अनेक पक्षों को प्रेरित किया है। उपर्युक्त साहित्य का ज्ञान प्राप्त किये बिना, भारतीय संस्कृति और दर्शन का अध्ययन परिपूर्ण नहीं माना जा सकता । अनेक भारतीय और वैदेशिक विद्वानों ने इस दिशा में प्रशंसनीय प्रयत्न किये हैं । किन्तु यह विषय इतना विशाल और वैविध्यमय है कि इसमें अनवरत अध्ययन की गुंजायश है ।
प्रस्तावना
यह वस्तुतः हर्ष का विषय है कि देश के प्रख्यात एवं प्रबुद्ध प्राच्य विद्या विशेषज्ञ पूज्य मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० ने इस कार्य को विशेष रूप से हाथ में लिया है। जैन आगमों और बौद्ध पिटकों के अध्ययन के सन्दर्भ में उन द्वारा लिखित "आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" नामक ग्रन्थ के प्रथम एवं द्वितीय - दो खण्ड प्रकाश में आ चुके हैं ।
पहले खण्ड में भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के जीवन तथा उनके धर्म संघ में प्रवृत्त आचार - विधाओं का निरूपण है । वहाँ प्रतिपाद्यमान विषय से सम्बद्ध, आगमों और त्रिपिटकों से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आचार सम्बन्धी उद्धरण प्रस्तुत कर विषय का बड़ा सुन्दर विवेचन किया गया है । बहुमूल्य सामग्री और तलस्पर्शी विश्लेषण के कारण इस खण्ड का हमारे देश में और विदेशों में विद्वानों द्वारा बड़ा समादर हुआ है
इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में भाषा और साहित्य का विवेचन हुआ है। पालि और प्राकृत के भाषाशास्त्रीय अध्ययन तथा तत्सम्बन्धी साहित्य में अनुसन्धान की दृष्टि से इस खण्ड में विपुल सामग्री है ।
इन भाषाओं का, जो भारतीय चिन्तन धारा का नवनीत अपने में संजोये हैं, सूक्ष्म विश्लेषण लेखक के प्रगाढ़ पाण्डित्य का परिचायक है ।
तीसरे खंड के दो भाग हैं । प्रथम भाग में मानव के उत्तम गुणों को उजागर करने वाले दर्शन एवं नीति सम्बन्धी अनेक पक्षों— जैसे धर्म, सत्य, अस्तेय, सदाचार, ऋजुता, पवित्रता, करुणा, विश्व बन्धुत्व, तपस्या, तितिक्षा, मृदुता, विनय, निःस्वार्थ भाव, सन्तोष, अपरिग्रह, मैत्री, समत्व, प्राणीमात्र के साथ समानता का भाव तथा इन्द्रिय-निग्रह आदि पर प्रकाश डाला गया है, जो मानव के वास्तविक अलंकरण हैं ।
यद्यपि जैन एवं बौद्धपरंपराएँ अपनी सूक्ष्म विशेषताओं के कारण बाह्य और आन्तरिक रूप में पूर्णतः सादृश्य या ऐक्य लिये हुए नहीं हैं, तथापि उनके मुख्य स्रोत एवं आधार प्राय: समान हैं, जिनसे प्रसूत आदर्श जन साधारण को प्रभावित करते हैं ।
यह सादृश्य केवल भावात्मक परिधि तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि दोनों की पारिभाषिक शब्दावली तक में दृष्टिगोचर होता है ।
निर डॉ० मुनिश्री नगराजजी ने आगमों, पिटकों तथा तत्सम्बन्धी साहित्य से अनेक प्रसंग, उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिनकी आश्चर्यजनक, उल्लेखनीय समानता, सुसंगत सामंजस्य तथा ध्वन्यात्मक सादृश्य हमारा ध्यान सहसा आकर्षित करते हैं और हम विस्मित हो सोचने लगते हैं कि दोनों ही स्थलों पर कहीं एक ही महापुरुष के मुख से तो ये पावन शब्द प्रस्फुटित नहीं हुए हों ।
विद्वान् लेखक ने इस सन्दर्भ में केवल उन्हीं प्रसंगों को संक्षेप में बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है, जिनका मानवीय गुणों और कर्मों से सम्बन्ध है । साथ-ही-साथ लेखक का इस बात पर भी यथेष्ट ध्यान रहा है कि कोई ऐसी काट-छाँट या ऐसा संक्षिप्तीकरण न हो, जिससे विवेच्य विषय सुरक्षित ही न रह पाए ।
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