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________________ प्रस्तावना साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में निष्पन्न अनुसन्धान-कार्यों की अनेक उपलब्धियां स्पष्टतया व्यक्त करती हैं कि प्राचीन भारतीय जीवन पर श्रमण संस्कृति का बहुत बड़ा प्रभाव रहा है। श्रमण-संस्कृति का मुख्य आधार मानव का अपना पुरुषार्थ और उसके परिणामस्वरूप प्राप्य आध्यात्मिक अभ्युदय है। “एक मात्र आत्म-पुरुषार्थ ही प्रशस्ति और उन्नति का हेतु है । वे किसी के वरदान या अनुग्रह से सिद्ध नहीं होतीं।"इस संस्कृति का यह स्पष्ट उद्घोष रहा है। इस महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त पर एतत्सम्बन्धी साहित्य में अत्यधिक विचारमन्थन और विश्लेषण हुआ है। अन्यान्य दर्शनों में भी यह विषय प्रमुख रूप में चर्चित हुआ है। __ "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योः....." अपने आपको देखो, अपने को सुनो, अपने आप पर मनन करो, निदिध्यासन करो।" उपनिषद् की यह उक्ति उपर्युक्त सिद्धान्त की वास्तविकता प्रकट करती है। कर्मनिष्ठा या पुरुषार्थ के विशद उद्घोष ने, जो मुख्यतः भारत के पूर्वी भाग में उठा, समग्र देश को प्रतिध्वनित किया। इस क्रान्तिकारी संदेश के उद्घोषक भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध थे, जो उस समय के साहित्य से प्रकट है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस प्रकार का क्रान्तिकारी आह्वान शताब्दियों पूर्व उस वायुमंडल में व्याप्त था, जो भगवान् महावीर और भगवान बुद्ध के समय में उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राकृत-जैन आगमों और पालि-बौद्ध पिटकों में उसका विस्तृत वर्णन है। तब उत्तर भारत में प्राकृत जन-साधारण की भाषा थी। विभिन्न प्रदेशों में बोली ली प्राकतों में प्रादेशिकता के कारण थोडी बहत भिन्नता थी। वस्ततः उस समय की वहां की सभी बोलियों का उद्गम-स्रोत प्राकृत था। प्राचीनतम जैन आगम साहित्य, जो इस समय प्राप्त है, जिस सामान्यतः विकसितपरिष्कृत प्राकृत में है, उसे अर्द्धमागधी कहा जाता है। बौद्ध पिटकों की भाषा मागधी प्राकृत है, जो पश्चाद्वर्ती काल में पालि के नाम से अभिहित हुई। जैन आगमों और बौद्ध पिटकों के रूप में जो विशाल वाङ्मय हमें प्राप्त है, वह हमारे देश की एक सांस्कृतिक निधि है, जिसने सामाजिक अभ्युदय और सभ्यता के विकास के १. बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय २, ब्राह्मण ४, पद ५ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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