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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार सत्य एक है -सत्स्वरूप है। वह एकमात्र अद्वितीय है। सब रसों में-स्वादु पदार्थों में सत्य विशेष आस्वाद लिये है-सबसे बढ़कर है।
मुनि --साधक, ब्राह्मण-ब्रह्मज्ञ-सत्स्वरूप का ज्ञाता सत्य का अवक्रम करसत्य को जीवन में उतार कर संसार सागर के तट पर पहुंच जाता है, भव-सागर को पार कर जाता है।
___ अकर्कश-कर्कशता रहित-अकठोर या कोमल, विज्ञापन-ज्ञानप्रद सत्य वाणी बोलनी चाहिए ।
अपने लिए अथवा अन्य के लिए क्रोधवश या भयवश हिंसक-पर पीडाप्रद मृषाअसत्य नहीं बोलना चाहिए, न दूसरे से बुलवाना चाहिए।
लोक में सभी सत्पुरुषों ने मृषावाद की-असत्य-भाषण की गौं-निन्दा की है। मषावाद सब प्राणियों के लिए अविश्वास का हेतु है। अतः उसका वर्जन करना चाहिए।
__ जो जानते हुए भी पूछे जाने पर अन्यथा भाषण करता है-असत्य बोलता है, सर्प की ज्यों उसकी जिह्वा के दो खण्ड हो जाते हैं, जीभ विदीर्ण हो जाती है फट जाती है।
- अभूतवादी-अयथार्थभाषी-असत्य-भाषण करने वाला और करके नहीं किया कहनेवाला-मुकरने वाला नरक प्राप्त करता है-नरक में जाता है।
जो सत्य का परित्याग कर असत्य का सेवन करता है-मिथ्या भाषण करता है, वह धर्म का उल्लंघन करता है-धर्म-पथ के विपरीत जाता है। उसे अपना परलोक बिगड़ने की कोई चिन्ता नहीं। ऐसा कौन-सा पाप है, जो वह नहीं कर सकता । वह जघन्य से
१. एकं हि सच्चं न दुतियमस्थि ।
-सुत्तनिपात ४.५०.७ २. सच्चं ह वे सादुतरं रसानं ।
-सुत्तनिपात १.२०.२ ३, सच्चा अवोक्कम मुनि थले तिट्ठति ब्राह्मणो।
-सुत्तनिपात ५३.१२ ४. अकक्कसं विज्ञापनि गिरं सच्चं उदीरये ।
-सुत्तनिपात ३५.३६ ५. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं ण मुसं बूया, णो वि अण्णं वयावए । मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरिहिओ। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए।
-दशवकालिक सूत्र ६.१२-१३ ६. जिह्वा तस्स द्विधा होति, उरगस्सेव दिसम्यति । यो जानं पुच्छितो पहं, अअथा विसुज्झति ।।
-जातक ४२२.५० ७. अभूतवादी निरयं उपेति, यो वापिकत्वा न करोमीति चाह ।
-सुत्तनिपात ३.३६.५
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