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________________ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ जो सुखेप्सु अपने सुख के लिए प्राणियों की हिंसा नहीं करता, वह मरकर परलोक सुख पाता है। में ८४ हिंसा से सब त्रस्त होते हैं । सब मृत्यु से भयभीत रहते हैं । अतः आत्मौपम्य का भाव लिए - सबको अपने तुल्य मानते हुए किसी को मारना नहीं चाहिए ।" त्रस -- जंगम, स्थावर - स्थितिशील, दीर्घ - लम्बे-चौड़े, मध्यम- महान् - विशाल, - मंझले ठिगने, स्थूल-मोटे या अणुक - बहुत छोटे हों, दृष्ट- दृष्टिगोचर - दिखाई देने वाले या अदृष्ट - अदृष्टिगोचर - नहीं दिखाई देने वाले हों, निकटवर्ती - नजदीक रहने वाले या दूरवर्ती — दूर रहने वाले हों, उत्पन्न हों या उत्पन्न होने वाले हों - सभी प्राणी सुखित हों। 3 जो शरीर द्वारा, वाणी द्वारा, मन द्वारा हिंसा नहीं करता, दूसरे को पीड़ा नहीं देता वह सर्वथा अहिंसक होता है । * सत्य भगवत्स्वरूप है ।" • वह जगत् में सारभूत है— सर्वथा सारयुक्त है ।" पुरुष ! तुम सत्य को सम्यक् रूप में समझो । सत्य की आज्ञा में - मर्यादा में उप स्थित विद्यमान साधक - सत्य का अनुसरण करनेवाला प्रज्ञाशील पुरुष मृत्यु को - संसार को तर जाता है । नित्य अप्रमत्त - जागरूक रह, मृषावाद का वर्जन कर उपयोग पूर्वक हितकर, किन्तु, दुष्कर - यत्न- साध्य सत्य वचन बोलना चाहिए। ७ १. सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति । अत्तनो सुखमे सानो, पेच्च सो लभते सुखं ॥ - धम्मपद १०.४ २. सब्बे तसन्ति दण्डस्स, शब्बे भायन्ति मच्चुनो । अत्तानं उपमं कत्वा, न हुनेथ्य न घातये ॥ - घम्मपद १०.१ ३. ये केचि पाणभूतत्थि तसा वा थावरा वा अनवसेसा । दीना वा ये महन्ता वा मज्झिमा रस्काऽणुक थूला ॥ दिट्ठा वा येव अदिट्ठा ये च दूरे वसन्ति अविदूरे || भूता वा संभवेसी वा सत्वे सत्ता भवन्ति सुखितत्ता ॥ -- सुत्तनिपातमेत्त सुत्त ४-५ ४. यो च कायेन वाचा य, मनसा च न हिंसति । सर्वं अहिंसको होति, यो परं न विहिंसतीति ॥ ५. तं सच्चं भगवं जं तं लोगम्मि सारभूयं । - संयुक्त निकाय, ब्राह्मणसुत्त, अहिंसकसुत्त - प्रश्नव्याकरण सूत्र २.१ ६. पुरिसा ! सच्चमेव समाभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेधावी मार तरति । Jain Education International 2010_05 -- आचारांग सूत्र १.३.३.६ ७. निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावाय विवज्जणं । भावियव्वं हियं सच्चं, निच्चाउत्तेण दुक्करं ॥ - - उत्तराध्ययन सूत्र १६.२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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