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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] संसार के सभी प्राणियों को दुःख अकान्त है-अप्रिय है । अतः वे सभी अहिंस्य हैं—किसी की मी हिंसा नहीं करनी चाहिए । आचार ज्ञानी के ज्ञान की - ज्ञानीपन की सार्थकता इसमें है कि वह किसी की भी हिंसा न करे । अहिंसक भावना द्वारा सबके प्रति समता भाव रखे- सबको अपने समान समझे । वस्तुत: यही विज्ञेय है - विशेष रूप से ज्ञातव्य है - समझने योग्य है ।" प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य- - उत्तम नहीं होता । समस्त प्राणियों की हिंसा न करने में ही आर्यत्व है । वास्तव में अहिंसा ही आर्यत्व का आधार है । " जैसा मैं हूँ, वैसे ही ये अन्य प्राणी हैं । जैसे ये अन्य प्राणी हैं, वैसा ही मैं हूँ । यों हुआ अपने समान मानकर न उनकी हत्या करे, न करवाए। सोचता ― जो अपने अनुकूल है, अपने को दृष्ट है, वही औरों को सुझाना चाहिए । ऐसे अर्थसमुचित आशय का अनुशासन करता हुआ सुधी पुरुष क्लेश-- उद्वेग या खेद नहीं पाता दण्ड से हिंसा से सब त्रस्त होते हैं। सबको अपना जीवन प्रिय लगता है । औरों को अपने ही समान समझकर उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए । जो सुखेप्सु अपने सुख के लिए प्राणियों की हिंसा करता है, वह मरकर परलोक में सुख नहीं पाता। १. सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सव्वे अहिंसिया । एतं खुणाणिणो सारं, जं न हिंसति किंचणं । अहिसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया ॥ -- सूत्रकृतांग १. १. ४. ६-१० २. न तेन अरियो होति, येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणानं, अरियो'त्ति पवच्यति ॥ - धम्मपद १६.५ ३. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं । अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ॥ - सुत्तनिपात ३. ३७.२७ ४. अत्तानं एव पढमं, पटिरूपं निवेशये । अथञ्च मनुसासेय्य न किलिस्सेय पण्डितो ॥ - थेरगाथा १५८ ५. सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ॥ - - घम्मपद १०.२ ६. सुखकामानि भूतानि, यो अत्तनो सुखमे सानो, पेच्य Jain Education International 2010_05 ८३ दण्डेन विहिंसति । सो न लभते सुखं ॥ - धम्मपद १०.३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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