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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ -परिघात करने योग्य मानते हो, जिसे तुम उपद्रुत-उपद्रवयुक्त करने योग्य मानते हो।'
दूसरे जीव का वध-हत्या अपनी हत्या है। दूसरे जीव पर दया करना अपने पर दया करना है।
प्रभु महावीर के वचनों में रुचि रखता हुआ-श्रद्धा रखता हुआ जो षट्कायिक जीव-निकाय को छहों प्रकार के जीवों को आत्मतुल्य मानता है, वास्तव में वही भिक्षु है।'
यह लोक-यह जीवन धर्मानुष्ठान की अपूर्व सन्धि-वेला है। इसे जानकर साधक बाह्य-जगत् को-अन्य आत्माओं को, प्राणीमात्र को, आत्मसदृश-अपने समान समझे। किसी का हनन न करे, पीडोत्पादन न करे ।
जिसकी तुम अपने लिए चाह लिए हो, वैसा तुम औरों के लिए भी चाहो । जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे औरों के लिए भी मत चाहो।५
सब प्राणियों को अपनी आयु-जीवन-स्थिति प्रिय लगती है, सभी सुख भोगना चाहते हैं, दुःख सबको प्रतिकूल-अप्रिय प्रतीत होता है । सब जीवन की कामना करते हैं। सबको जीवन प्रिय लगता है।
सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। अतः निर्ग्रन्थ-हिंसाविरत श्रमण प्राणिवध को घोर-भयंकर, पापोत्पादक मानते हुए उसे वजित करते हैंउसका आचरण नहीं करते।"
१. तुमं सि णाम तं चेव जं हंतव्वं ति मण्णसि। तुमं सि णाम तं चेव जं अज्जावेतव्वं ति मण्णसि । तुमं सि णाम तंव जंपरितावेतवं ति मण्णसि । तुमं सि णाम तं चेव जं परिघेतव्वं ति मण्ण सि । एवं तं चेव जं उद्दवेतव्वं ति मण्णसि ।
-आचारांगसूत्र १. ५. ५. ५ २. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।
-भक्त प्रत्याख्यान ३. रोइअ णायपुत्तवयणे, अत्तसमे मण्णिज्ज छप्पिकाये ।
-दशवकालिक सूत्र १०.५ ४. संधि लोगस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास। तम्हा ण हंता ण विधातए।
-आचारांग सूत्र १. ३. ३.१ ५. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छा परस्स वि मा, एत्तियगं जिणसासणयं ।।
-वहत्कल्प भाष्य ४५५४ ६. सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाता दुक्खपडिकूला, अप्पियवधा, पियजीविणो, जीवितु. कामा, सब्वेसिं जीवितं पियं ।
-आचारांग सूत्र १. २. ३.४ ७. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउंण मरिज्जि। सम्हा पाणि वहं घोरं, णिग्गंथा वज्जयंति णं॥
-दशवकालिक सूत्र ६.११
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