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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
आचार
श्रहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
भारत की प्राय: सभी धर्म-परंपराओं में अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा ब्रह्मचर्य की उपादेयता स्वीकार की गई है। उनसे शून्य धर्म वास्तव में धर्म नहीं कहा जा सकता । श्रमण-संस्कृति के तो मूल आधार ही ये हैं । जैन वाङ्मय एवं बौद्ध वाङ्मय में इनके सम्बन्ध में स्थान-स्थान पर बड़ा विशद विवेचन हुआ है, जो मननीय है ।
अहिंसा - किसी प्राणी की हिंसा न करना --वध न करना, उसे कष्ट न देना, सत्य भाषण करना, असत्य न बोलना, अस्तेनक — चोरी न करना, किसी के बिना दिये किसी की कोई वस्तु न लेना, ब्रह्मचर्य का पालन करना — काम-संयम करना तथा परिग्रह का वर्जन करना—ये पाँच महाव्रत हैं। इन्हें स्वीकार कर साधक जिन प्ररूपित धर्म का प्रतिपालन करे । '
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जो मनुष्य हिंसा करता है - किसी का प्राण हरण करता है, किसी को मारता है, सताता है, मृषावाद — असत्य भाषण करता है, लोक में किसी की बिना दी हुई वस्तु लेता है— चोरी करता है, पर स्त्री गमन करता है, मदिरा पान करता है, वह लोक में स्वयं अपनी जड़ खोदता है - स्वयं अपने विनाश को आमंत्रित करता है ।
मानव ! यह पापधर्मा, असंयत जनों की स्थिति है । इसे जानो, समझो। ये अधर्ममूलक कर्म चिरकाल पर्यन्त तुम्हें दु:ख में राँधे नहीं, पकायें नहीं, यह सोचकर तुम इनका परिवर्जन करो।
सातागिरि तथा हेमवत नामक दो यक्षों ने एक बार परस्पर विचार किया - आज पूर्णिमा है, उपोसथ है । भव्य, मनोरम रात्रि उपस्थित है। उत्तम नाम युक्त — परम यशस्वी शास्ता गौतम के हम दर्शन करें ।
हेमवत ने सातागिरि से कहा- - "क्या उनका — शास्ता गौतम का चित्र समाधियुक्त है ? क्या सब प्राणियों के प्रति वे समान भाव -- -- अहिंसा भाव लिये हैं ? क्या वाञ्छित,
१. अहिंस सच्चं च अतेणगं च ततो अदंभं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ ॥
२. यो
पाणमतिपाति, मुसावादञ्च
— उत्तराध्ययन सूत्र २१.१२ भासति । लोके अदिन्न आदियति, परदारञ्च गच्छति ॥ सुरामेरयपानञ्च, यो नरो अनुयुञ्ञति । इस लोकस्मिं मूलं खनति अत्तनो ॥ एवं मो पुरिस ! जाना हि, पाप धम्मा असता । मा तं लोभो अधम्मो च, चिरं दुक्खाय रन्धयुं ॥ -धम्मपद १८,
मल्लवग्गो १२.१४
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