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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ जैन सिद्धान्त में पेड़-पौधों का जीवत्व अनादिकाल से स्वीकृत है। इस सम्बन्ध में आगम-साहित्य में अनेक स्थानों पर विस्तृत विवेचन हुआ है। अन्यान्य जीवधारियों या प्राणियों की हिंसा के परिवर्जन की ज्यों वनस्पति-पेड-पौधे बीज आदि के हिंसा-परिहार पर भी जैन-शास्त्रों में बड़ा जोर दिया गया है। बौद्ध-शास्त्रों में भी यह स्वर सांकेतिक रूप में मुखरित रहा है। इतना ज्ञातव्य है, जैन-शास्त्रों की तरह प्रस्तुत विषय का विपुल विस्तारमय विवेचन संभवतः वहाँ नहीं हो पाया, किन्तु, भाव-साम्य, दृष्टि-सामंजस्य श्रमणसंस्कृति की इन दोनों ही धाराओं में उपलब्ध है।
विवेक जन हिंसा से लज्जित-संकुचित ---पृथक रहते हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपने को अनगार-गृहत्यागी कहते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ-हनन या संहार करते हैं। वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करने के साथ-साथ वे दूसरे अनेक प्रकार के जीवों की भी विहिंसा-विघात करते हैं। ...
- भगवान् महावीर ने इस सम्बन्ध में परिज्ञान या उपदेश दिया- "इस जीवन के निमित्त, परिवन्दन-प्रशस्ति, मानन-समादर एवं पूजा-सत्कृति के हेतु, जाति-जन्म, मृत्यु और मोचन-मुक्ति या मोक्ष के लिए, दुःख के प्रतिघात-प्रतिकार के लिए वह (अपने को साधु अभिहित करने वाला) स्वयं वनस्पतिकाय के जीवों का घात करता है, औरों द्वारा वैसा करवाता है तथा जो करते हैं, उनका अनुमोदन करता है, उनको अच्छा समझता है। इस प्रकार स्वयं हिंसा करना, दूसरों से करवाना, करते को अच्छा मानना, उसके अहित-अकल्याण-बुराई के लिए है, अबोधि-अज्ञानसूचक है। साधक उक्त तथ्य को हृदयंगम करता हुआ संयम में सुस्थिर रहे।
"भगवान् से, गृहत्यागी संयमी पुरुषों से श्रवण कर उसे यह ज्ञान हो जाता है कि हिंसा एक ग्रन्थि है— गाँठ है । वह मोह है, मार है-मृत्यु है तथा नरक है किन्तु फिर भी आसक्तिवश मनुष्य तरह-तरह के शस्त्रों द्वारा वनस्पतिकाय की हिंसा करता है। वनस्पति काय की हिंसा करता हुआ वह अन्य बहुत प्रकार के के जीवों की भी हिंसा करता है।"
भगवान तथागत ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा- "भिक्षुओ ! ऐसे पुरुष बहुत कम हैं, जो बीज-वनस्पति को नष्ट करने से विरत रहते हैं-बीज-वनस्पति को नष्ट करने का परित्याग करते हैं। ऐसे पुरुष अधिक हैं, जो बीज-वनस्पति को नष्ट करने से विरत नहीं होते-जो बीज-वनस्पति को नष्ट करने का परित्याग नहीं करते।"२ .
भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! ऐसे पुरुष बहुत कम हैं, जो कच्चा अन्न ग्रहण करने से विरत होते हैं जो कच्चा अन्न ग्रहण करने का परित्याग करते हैं। ऐसे पुरुष अधिक हैं, जो कच्चा अन्न ग्रहण करने से विरत नहीं होते-जो कच्चा ग्रहण करने का परित्याग नहीं करते।"3
१. आचारांग १.१.५.४२-४४ २. संयुत्त निकाय, सत्वे सुत्तन्त ५४.८.८ ३. संयुत्त निकाय, घञ सुत्त ५४.६.४
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