________________
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ रहता है और न असंज्ञी रहता है।"१ आत्मोच्छेदवाद
"कई श्रमण-ब्राह्मण ऐसे हैं, जो मानते हैं कि शरीर का नाश होते ही सत्त्व या आत्मा उच्छिन्न, विनष्ट या लुप्त हो जाता है।" दृष्टधर्म निर्वाणवाद
, भिक्षुओ ! कितने क श्रमण-ब्राह्मण दृष्टधर्मनिर्वाणवादी हैं । वे मानते हैं कि प्राणी इसी संसार में-इसी जन्म में देखते-देखते निर्वाण प्राप्त कर लेता है।"3
संख्यानुक्रमी शास्त्र प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में शास्त्र-ज्ञान की मौखिक परंपरा रही है। उसे कण्ठान रखा जाता रहा है । जैनों और बौद्धों में जहां यह परंपरा गुरु-शिष्य-क्रम से गतिशील रही, वहाँ वैदिकों में मुख्यतः पिता-पुत्र-क्रम से यह चलती रही। वेदवेत्ता पिता अपने पुत्र को बचपन से ही वैदिक मंत्रों का सस्वर शिक्षण देता। यों विशेषतः श्रवण-परंपरया चलते रहने के कारण शास्त्र-ज्ञान के साथ श्रुत शब्द जुड़ा । जैन परंपरा में श्रुत शब्द जहां ज्ञान के भेद-विशेष के लिए पारिभाषिक है, वहाँ साथ-ही-साथ सामान्यतः शास्त्र-ज्ञान के अर्थ में भी प्रयुक्त है। बहुश्रुत शब्द उसी आधार पर निष्पन्न है । वेदों को श्रुति कहे जाने के पीछे भी यही संकेत है, क्योंकि वे पितृ-मुख से गुरु-मुख से श्रवण कर स्मृति रखे जाते रहे हैं।
शास्त्र ज्ञान से सम्बद्ध प्रमुख विषय हर समय स्मृति में रह सकें, इसके लिए शास्त्र. प्रणयन में एक विशिष्ट, सरल पद्धति का स्वीकार हुआ, जिसमें विभिन्न विषयों को संख्यानक्रम से समाकलित किया गया। भिन्न-भिन्न विषय, जो विस्तार, भेद या प्रकार की दष्ट से एक समान संख्या में हैं, उन्हें एक साथ उपस्थापित किया गया है, ताकि उन्हें स्मरण रखने में सुविधा हो । उनका विशेष विश्लेषण, विवेचन यथेष्ट रूप में अन्यत्र, जैसा अपेक्षित हो, प्राप्त किया जा सके । मूल विषय नाम्ना निरन्तर स्मृति में रहें।
जैन आगमों में स्थानांग तथा समवायांग इसी कोशात्मक शैली में प्रणीत हैं। बौद्धवाङ्मय में अंगुत्तरनिकाय, पुग्गल पञति आदि इसी शैली के ग्रन्थ हैं। उनमें स्थानांग एवं समवायांग की ज्यों संख्यानुक्रम से विविध विषय प्रतिपादित हैं। दोनों परंपराओं में यह एक अद्भुत साम्य है।
___ महाभारत में भी एक प्रसंग है, जो इसी संख्याश्रित शैली में वर्णित है। वन पर्व के १३४ वें अध्याय में नन्दी-अष्टावक्र का संवाद है। वहां दोनों की ओर से एक से तेरह तक की वस्तुएँ, विषय प्रस्थापित, प्रतिपादित हैं।
स्थानांग
जैन-परंपरा में द्वादशांगी-बारह अंग आगमों में स्थानांग तीसरा है। इसमें दश
१. दीधनिकाय १.१. पृष्ठ १२ २. दीधनिकाय १.१. पृष्ठ १२ ३. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ १३
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |