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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] तत्व ७३ यथा अंशतः अनित्य मानते हैं।" सान्त-अनन्तवाद "भिक्षुओ ! कितनेक श्रमण-ब्राह्मण ऐसे हैं, जो लोक को सान्त-अन्तसहित तथा अनन्त-अन्तरहित मानते हैं। वे अन्तानन्तवादी हैं।"२ अमराविक्षेपवाद “भिक्षुओ ! कोई एक श्रमण-ब्राह्मण ऐसा है जो, यथार्थत: नहीं जानता कि यह अच्छा है या बुरा है । वह मन में सोचता है, जब मैं ठीक-ठीक नहीं जानता कि यह अच्छा है या यह बुरा है, तब-ठीक ठीक न जानते हुए यह कह देना कि अमुक अच्छा है, अमुक बुरा है-मिथ्या भाषण होगा। मेरा असत्य-भाषण मेरा घातक—मेरे नाश का कारण होगा। जो घातक होगा, वह अन्तराय होगा-निर्वाण के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करेगा। यों उसे असत्य-भाषण से भय होता है, घृणा होती है, इसलिए वह नहीं कहता कि यह अच्छा है, यह बुरा है। ऐसी स्थिति में प्रश्न पूछे जाने पर वह स्थिरता से--स्थिर वाणी में बात नहीं कर पाता।" अकारणवाद "भिक्षुओ ! कितनेक श्रमण-ब्राह्मण ऐसे हैं, जो अकारणवादी हैं । वे मानते हैं कि बिना किसी कारण के सब वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं । वे आत्मा का और लोक का अकारण उत्पन्न होना स्वीकार करते हैं।" मरणान्तरसंज्ञ आत्मवाद भिक्षुओ ! कितनेक श्रमण-ब्राह्मण ऐसे हैं, जो मानते है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा संशी-चेतनायुक्त, होशयुक्त होता है ।"५ मरणान्तरासंज्ञवाद "भिक्षुओ ! कई श्रमण-ब्राह्मण ऐसे होते हैं, जो मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा असंज्ञी-चेतनाहीन रहता है।" मरणान्तरसंज्ञासंज्ञवाद "कितनेक श्रमण-ब्राह्मण ऐसे हैं, जो मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् न आत्मा संज्ञी १. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ ७ २. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ ८ ३. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ ६,१० ४. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ ११ ५. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ ११ ६. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ १२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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