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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
भगवान् ने कहा-“भिक्षुओ ! रूप का अस्तित्व, रूप का उपादान, रूप का अभिनिवेश ही वे कारण हैं, जिनसे ऐसी मिथ्या-दृष्टि उत्पन्न होती है। इसी प्रकार वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान के कारण ऐसा होता है।"
"भिक्षुओ ! रूप नित्य है या अनित्य है ? तुम कैसा समझते हो?" "भन्ते ! रूप अनित्य है।"
"भिक्षुओ ! जो नित्य नहीं हैं, दुःख हैं, परिवर्तनमय हैं, उसका उपदान न करने से, उसे नित्य मान स्वीकार न करने से क्या इस प्रकार की मिथ्या-दृष्टि उत्पन्न होती है।"
"भन्ते ! ऐसा नहीं होता।" "भिक्षुओ ! वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान नित्य हैं या अनित्य हैं ?"
"जिसे देखा गया, सुना गया, सूंघा गया, जिसका आस्वाद लिया गया, स्पर्श किया गया, जिसे जाना गया, प्राप्त किया गया, गवेषित किया गया, जो मन में सोचा गया, वह नित्य है या अनित्य है ?"
"भन्ते ! वे सब अनित्य हैं।"
"भिक्षुओ जो नित्य नहीं हैं, दुःख हैं, परिवर्तनमय हैं, उनका उपदान न करने से उन्हें नित्यरूप में स्वीकार न करने से क्या ऐसी मिथ्या-दृष्टि उद्भूत होती है ?"
"भन्ते ! ऐसा नहीं होता।"
दीघनिकाय में मतवाद
शाश्वतवाद
"भिक्षुओ ! कोई एक भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद तथा चैतसिक स्थिरता से वैसी चित्त समाधि प्राप्त करता है, जिसके कारण उसे सौ पूर्व-जन्मों की सहस्र पूर्व-जन्मों की, लाख वर्ष पूर्व-जन्मों की, कई लाख पूर्व जन्मों की स्मृति हो जाती है-जैसे मैं इस अमुक नाम का, इस गोत्र का इस रंग का, इस आहार का था, इस प्रकार के सुख-दुःख अनुभव करता रहा, इतनी आयु तक जीता रहा, वहाँ मरण प्राप्त कर वहाँ-अन्यन उत्पन्न हुआ। वहाँ भी मैं इस-अमुक नाम का, अमुक गोत्र का, अमुक रंग का, अमुक आहार का था। इस प्रकार के सुख-दुःख अनुभव करता था। इतनी आयु तक वहाँ जीता रहा । मैं वहाँ मरण प्राप्त कर यहाँ उत्पन्न हुआ।
__ इस प्रकार वह अपने पूर्व जन्मों के समग्र आकार-प्रकार स्मरण करता है। उसी आधार पर वह कहता है-आत्मा तथा लोक नित्य हैं, अपरिणमनशील हैं, कूटस्थ हैं, अचल हैं-शाश्वत हैं। प्राणी उत्पन्न होते, चलते-फिरते एवं मर जाते हैं पर उनका अस्तित्व नित्य है—शाश्वत है।"
नित्यत्व-अनित्यत्ववाद
"भिक्षुओ ! कितनेक श्रमण-ब्राह्मण ऐसे हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य
१. संयुक्त्त निकाय, पहला भाग-नस्थिसुत्त २३.१.५ २. दीघनिकाय १.१. पृष्ठ ६
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