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________________ तत्त्व : चिन्तन : कथानुयोग] तत्त्व मरवाना, सोचना, सोचवाना, थकना, थकाना, हिंसा करना, चोरी करना, सेंध लगाना, डाका डालना, किसी के घर को लूटना, राहजनी करना, परस्त्री-गमन करना, असत्य-भाषण करना—इनसे कोई पाप नहीं होता। यदि कोई क्षुरिका सदृश तीक्ष्ण चक्र द्वारा जगत् के सभी प्राणियों को मार-मार कर मांस का एक बहुत बड़ा ढेर कर दे, वैसा करने पर भी उसे कोई पाप नहीं लगता। यदि कोई गंगा के दक्षिणी तट पर प्राणियों को मार-मार कर, मरवा कर, काट-काट कर, कटवाकर, पका-पका कर, पकवा कर उनके मांस का बहुत बड़ा ढेर कर दे तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता। यदि कोई गंगा के उत्तरी तट पर प्राणियों को मार-मार कर, मरवा कर, काट काट कर, कटवा कर, पका-पका कर, पकवा कर उनके मांस का बहत बड़ा ढेर लगा दे तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता । दान करने से, इन्द्रिय दमन से, संयम-पालन से, सत्य-भाषण से कोई पुण्य नहीं होता।" भिक्षु बोले- ऐसी मिथ्या-दृष्टि के उत्पन्न होने का कारण हम नहीं जानते। धर्म के मूल विज्ञाता आप ही हैं।" भगवान् ने कहा-“रूप के अस्तित्व, उपादान, अभिनिवेश, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान को, जो अनित्य है, नित्य मानने से ही ऐसी मिथ्या-दृष्टि पैदा होती है।'' उच्छेदवाद एक समय की बात है, भगवान् तथागत श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन नामक उद्यान में विहरणशील थे। उन्होंने भिक्षुओ को संबोधित कर कहा-"भिक्षओ ! जानते हो ? किस कारण ऐसी मिथ्या दृष्टि पैदा होती है—दान का, यज्ञ का, हवन का कोई फल नहीं होता। सत् कार्यों का, असत का कोई फल नहीं होता। न लोक अस्तित्व है, न परलोक का अस्तित्व है। न माता, पिता का ही कोई अस्तित्व है । न औपपातिक सत्त्व-अगर्भोत्पन्न, स्वयमुद्भूत प्राणियों का ही, कोई अस्तित्व है। न ऐसे श्रमण-ब्र ह्मण हैं, जो सम्यक् प्रतिपत् युक्त हों-सम्यक् ज्ञान युक्त हों, उद्बुद्ध हों, जो लोक, परलोक का साक्षात्कार कर चुके हों, साक्षात्कृत का उपदेश देते हों। "यह पुरुष पृथ्वी, आप्—जल, तेज-अग्नि तथा वायु-इन चार महाभूतो के संघात से, मिलन से निष्पन्न है। किसी भी प्राणी के मर जाने के पश्चात् पृथ्वी का पृथ्वी में विलय हो जाता है, जल का जल में विलय हो जाता है, तेज का तेज में विलय हो जाता है। इन्द्रियों का आकाश में विलय हो जाता है। जब मनुष्य मर जाता है तो पाँच आदमी मिलकर उसकी लाश को उठा ले जाते हैं और जला देते हैं। कबूतर के सदृश केवल उज्ज्वल अस्थियाँ ही बच पाती हैं । "किसी के द्वारा दिया गया दान निष्फल है, मिथ्या प्रवंचना है, मात्र ढोंग है। आस्तिकवाद की बात कहने वाले पण्डित, मूर्ख सभी नष्ट हो जाते हैं, सभी का लोप हो जाता है । मृत्यु के पश्चात् कुछ नहीं रहता।" . भिक्षुओं ने कहा-"भन्ते ! हम नहीं जानते, इस मिथ्या-दृष्टि के उत्पन्न होने के क्या कारण हैं। धर्म के मूल, विज्ञाता, आप ही हैं।" १, संयुक्त्त निकाय, पहला भाग, करोतो सुत्त २३.१.६ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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