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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ "जो तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा किसी के मस्तक का अच्छे करता है, मस्तक को काटता है, वैसा कर वह किसी को जान से नहीं मारता । शस्त्र के प्रहार द्वारा कायों के मध्य केवल एक छिद्र बनाता है । ७० "शील - पालन द्वारा, व्रतानुसरण द्वारा, तप के अनुशीलन द्वारा ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान द्वारा कोई सोचे-----मैं अपने अपरिपक्व - जिसका परिपाक नहीं हुआ है, ऐसे कर्म को परिपक्व — परिपाकयुक्त बना दूंगा । जो परिपक्व है - जिसका परिपाक हो चुका है, ऐसे कर्म को उपयुक्त कर शनैः-शनैः परिसमाप्त कर दूंगा - यह सब होने वाला नहीं है । "संसार में जो भी सुख-दुःख हैं, वे परिमित नहीं हैं— नपे-तुले नहीं हैं और न उन सुखों या दुःखों का कोई नियत काल-मान है । न वे किसी प्रकार घटते हैं— कम होते हैं और न बढ़ते हैं—- ज्यादा होते हैं । " सूत के गोले को यदि फेंका जाए तो वह खुलता जाता है, लपेटा हुआ सूत निकलता जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी, ज्ञानी - सभी के दुःख, सुख खुलते जाते हैं, हटते जाते हैं, उनका अन्त होता जाता है । " भिक्षुओं ने कहा – “भन्ते ! धर्म के भूल, विज्ञाता आप ही हैं, आप ही जानते हैं । हम नहीं जानते।" भगवान् ने कहा- ' – “भिक्षुओ ! रूप के अस्तित्व, उपादन, अभिनिवेश, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान को जो अनित्य हैं, नित्य मानने में ही ऐसी मिथ्या-दृष्टि पैदा होती है । "" दैववाद भगवान् तथागत ने भिक्षुओ को संबोधित कर कहा – “भिक्षुओ ! जानते हो, किस कारण ऐसी मिथ्यादृष्टि उद्भूत होती है - प्राणियों के संक्लेश का कोई प्रत्यय - कारण नहीं है। प्राणी बिना कारण ही कष्ट पाते हैं । प्राणियों के विशुद्ध होने का कोई कारण नहीं है । बिना कारण ही प्राणी विशुद्धि प्राप्त करते हैं । बल- शक्ति, वीर्य, पौरुष — पुरुषार्थ, पराक्रम --- उद्यम – इनका कोई फल नहीं है । समस्त प्राणी, जीव अवश हैं - किसी के वश में, शासन में, नियमन में नहीं हैं। सभी भाग्य, संयोग या स्वभाव पर आश्रित हैं - टिके हैं । भाग्य, संयोग यास्वाभाववश प्राणी छः अभिजातियों में सुख, दुःख का अनुभव करते हैं । "भन्ते ! धर्म के मूल, विज्ञाता आप ही हैं, आप ही जानते हैं । हम नहीं जानते ।" भगवान् ने कहा - " भिक्षुओ ! रूप के अस्तित्व, उपादान अभिनिवेश, वेदना, संस्कार, संज्ञा तथा विज्ञान को, जो अनित्य हैं, नित्य मानने से ही ऐसी मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है।"" अक्रियवाद भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा – “भिक्षुओ ! जानते हो, किस कारण से ऐसी मिथ्या-दृष्टि उद्भूत होती है - "करना, कराना, काटना, कटवाना, मारना, १. संयुक्त निकाय, पहला भाग, महादिट्ठ सुत्त २३.१.८ २. संयुक्त निकाय, पहला भाग, हेतु सुत्त २३.१.७ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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