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________________ ६६ तत्त्व : आचार · कथानुयोग] तत्त्व “भिक्षुओ ! रूप आदि का नित्यत्व स्वीकार करने से ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है।" सान्तवाद भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा- 'जानते हो, यह लोक सान्त है—अन्तयुक्त है, ऐसी मिथ्यादृष्टि किस कारण उद्भूत होती है ?" "भन्ते ! धर्म के मूल आप ही हैं, आप ही जानते हैं ?" "भिक्षुओ ! रूप आदि का नित्यत्व स्वीकार करने से ऐसी मिथ्या-दृष्टि उत्पन्न होती है।"२ शाश्वतवाद भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-“भिक्षुओ! यह लोक शाश्वत हैं--ध्र व या नित्य है, ऐसी मिथ्या-दृष्टि किस कारण उत्पन्न होती है ? "भन्ते ! धर्म के मूल आप ही हैं, आप ही इसे जानते हैं।" "भिक्षुओ!रूप के अस्तित्व, उपादान अभिनिवेश, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान का नित्यत्व स्वीकार करने से लोक को शाश्वत मानने की मिथ्यादृष्टि उद्भूत होती है।" "भिक्षुओ! रूप आदि नित्य हैं या अनित्य ?" "भन्ते ! वे अनित्य हैं ?" अशाश्वतवाद भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा- "जानते हो, लोक अशाश्वत है, ऐसी मिथ्या-दृष्टि किस कारण उद्भूत होती है?" "भन्ते ! धर्म के मूल आप ही हैं, आपही जानते हैं।" "भिक्षुओ ! रूप आदि का नित्यत्व स्वीकार करने से ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है।" अकृततावाद भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-"भिक्षुओ! जानते हो, किस कारण से ऐसी मिथ्या-दृष्टि उद्भूत होती है-पृथ्वी काय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, सुख, दुःख तथा जीव-ये सातों काय अकृत हैं-किये हुए नहीं हैं, अकारित हैं—कराये हुए नहीं हैं, अनिर्मित हैं-बने हुए नहीं हैं, अनिर्यापित हैं-बनाये हुए नहीं हैं, वन्ध्य हैं-अफलोत्पादक हैं, कूटस्थ हैं, अचल हैं--स्थिर हैं। उनमें हिलना-डुलना नहीं होता, विपरिणमन नहीं होता और न वे परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । न वे एक दूसरे को सुख दे सकते हैं और न दुःख ही देसकते हैं । १. संयुत्त निकाय, पहला भाग–अनन्तवाद सुत्त २३.१.१२ २. संयुत्त निकाय, पहला भाग–अन्तवाद सुत्त २३.१.११ ३. संयुत्त निकाय, पहला भाग-सस्सतो लोको सुत्त २३.१.६ ४, संयुत्त निकाय, पहला भाग-असस्सतो सुत्त २३.१.१० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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