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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ है, वह संसार के पार पहुँच जाए-जन्म-मरण से छूट जाए, किन्तु, वैसा हो नहीं पाता, वह संसार-सागर में भटकता रहता है।'
सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम-पुण्डरीक अध्ययन में तज्जीवतच्छरीरवाद, पञ्चमहाभूतवाद, ईश्वरकारणवाद-आत्माद्वैतवाद तथा नियतिवाद का विशेष विवेचन है।
सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के बारहवे-समवसरण अध्ययन में एकान्त-अज्ञानवाद, एकान्त-विनयवाद, एकान्त-अक्रियावाद, एकान्त-क्रियावाद तथा सम्यक्-क्रियावाद की चर्चा एवं समीक्षा है।
___ नियुक्तिकार ने इस सन्दर्भ में क्रियावाद के १८०, अक्रियावाद के ८४, अज्ञानवाद के ६७ तथा विनयवाद के ३२ भेदों की चर्चा की है । वृत्तिकार ने इन १८०+८४+६७+ ३२=३६३ (तीन सौ तिरेसठ) भेदों का नामाल्लेख करते हुए पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया है।
यह भेद-क्रम थोड़े-थोड़े सैद्धान्तिक अन्तर पर आषत है।
संयुत्त निकाय में विभिन्न मतों की चर्चा तज्जीव तच्छरीरवाद
भगवन् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा.-"भिक्षुओ ! जानते हो, जो जीव है, वही शरीर है, ऐसी मिथ्या-दृष्टि किस कारण पैदा होती है ?"
"भन्ते ! आप ही धर्म के मूल है, आप ही जानते हैं।" "भिक्षुओ ! रूप आदि का नित्यत्व स्वीकार करने से ऐसी मिथ्यादृष्टि पैदा
होती है।"
जीवान्य शरीरवाद
भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-"भिक्षुओ! जानते हो, जीव अन्य है तथा शरीर अन्य है, ऐसी मिथ्या-दृष्टि किस कारण उत्पन्न होती है ?"
"भन्ते ! धर्म के मूल आप ही हैं, आप ही जानते हैं।"
"भिक्षुओ ! रूप आदि का नित्यत्व स्वीकार करने से ऐसी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है।"3
अनन्तवाद
भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! जानते हो, यह लोक अनन्त है, ऐसी मिथ्यादृष्टि किस कारण उद्भूत होती है ?"
"भन्ते ! धर्म के मूल आप ही हैं, आप ही जानते हैं।"
१. सूत्रकृतांग १.१.२.३१-३२ २. संयुत्त निकाय पहला भाग-तं जीवं तं सरीरं सुत्त २३.१.१३ ३. संयुत्त निकाय-अचं जीवं अझं सरीरं सुत्त २३.१.१४
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