SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] तत्त्व ६५ एक आत्मा उत्पन्न होती है। इनके पाँच महाभूतों के विनाश से-विच्छेद से आत्मा का विनाश होता है। ऐसा कुछ लोगों का कथन -अभिमत है।' नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु तथा वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने इसे चार्वाक मत बतलाया है, जो पंचमहाभूतवाद पर आधृत है। एकात्मवाद जैसे एक पृथ्वी-स्तूप-पृथ्वी-पिण्ड, पृथ्वी समवाय अनेक रूपों में दिखाई देता है, उसी प्रकार समस्त लोक में व्याप्त विज्ञानघन एक आत्मा जडचेतनमय नाना रूपों में दिखाई देती है। कई मन्द-अज्ञानीजन लोक में एक ही आत्मा होने की बात कहते हैं। किन्तु, इसे कैसे माना जाए ? यह स्पष्ट है-आरंभ-हिंसा आदि पाप कृत्यों में आसक्त रहने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति स्वयं पाप कर उसके फलस्वरूप स्वयं ही तीव्र दुःख भोगते हैं, कोई एक ही आत्मा ऐसा नहीं करती।' इन दो गाथाओं में निरूपित और निरसित अभिमत को उत्तरमीमांसा-प्रतिपादित ब्रह्माद्वैतवाद या केवलाद्वैतवाद से पहचान की जा सकती है। तज्जीव तच्छरीरवाद चाहे, बाल--अज्ञानी हों, चाहे पण्डित-ज्ञानी हों, उनमें से प्रत्येक की, सब की आत्माएँ अलग-अलग हैं। मरने के पश्चात् उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता। किन्हीं भी प्राणियों का उपपात-दूसरे भव में उत्पत्ति या परलोकगमन नहीं होता। न कोई पुण्य है, न पाप है। न इस लोक से परे कोई लोक है। देह के विनाश के साथ ही देही का-आत्मा का विनाश हो जाता है। वार्य भद्रबाहु तथा वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने इसे तज्जीवतच्छरीवाद के नाम से अभिहित किया है। आकारकवाद आत्मा न कुछ करती है, न कराती है, जो भी क्रियाएँ हैं, सबके साथ करने, कराने की दृष्टि से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे आत्मा अकारक-अकर्ता है । कुछ लोग ऐसे सिद्धान्त स्थापित करने की धृष्टता करते हैं। जो पूर्वोक्त तज्जीवतच्छरीरवादी एवं अकारकवादी शरीर से भिन्न आत्मा के न होने तथा आत्मा के अकर्ता या निष्क्रिय होने के सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं, यदि उन्हें सही माना जाए तो यह लोक-चातुर्गतिक लोक-परलोक ही कैसे घटित हो? वैसा मानने पर लोक का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता। १. सूत्रकृतांग १.१.१.७-८ २. सूत्रकृतांग १.१.१.६-१० ३. सूत्रकृतांग १.१.१.११-१२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy