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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ सारिपुत्त ने कहा-"राग, द्वेष एवं मोह का क्षय-नाश अर्थात् राग, द्वेष तथा मोह से छूटना इसी का नाम निर्वाण है।" । परिव्राजक बोला- "आयुष्मन् !सारिपुत्त ! क्या कोई ऐसा मार्ग है, जिसका अवलम्बन कर निर्वाण का साक्षात्कार किया जा सके ?" सारिपुत्त ने कहा-"हाँ, आयुष्मन् ! ऐसा मार्ग है, जिसका अवलम्बन कर निर्वाण का साक्षात्कार किया जा स परिव्राजक ने पूछा- "आयुष्मन् ! वह कौन-सा मार्ग है, जिसका अवलम्बन कर निर्वाण का साक्षात्कार किया जा सकता है ?" ___ सारिपुत्त ने बताया- "आयुष्मन् ! अष्टांगिक मार्ग द्वारा निर्वाण का साक्षात्कार किया जा सकता है । सम्यक् दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक्-वचन्त, सम्यक्-कर्मान्त सम्यक्आजीव, सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति तथा सम्यक्-समाधि—यही अष्टांगिक मार्ग है।" “आयुष्मन् ! निर्वाण का साक्षात्कार करने हेतु यह सर्वथा सुन्दर मार्ग है। प्रमाद न करते हुए इस मार्ग का अनुसरण करते रहना चाहिए।" भारत की पुरावर्ती दार्शनिक परम्पराएँ : मतवाद महावीर एवं बुद्ध का समय वैचारिक उत्क्रान्ति, दार्शनिक ऊहापोह, तत्त्वावगाहन एवं चिन्तन-विवेचन का समय था। तब भिन्न-भिन्न सिद्धान्त लिये अनेक मतवाद छोटे-बड़े रूप में देश में प्रचलित थे। जैन आगम तथा बौद्ध पिटक, जो परम्परा महावीर एवं बुद्ध की समसामयिकता लिये हैं, इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं। सूत्रकृतांग में मत-विवेचन जैन परम्परान्तर्गत द्वादशांगी में-बारह आगमों में दूसरा सूत्रकृतांग है । स्व-सिद्धांत निरूपण से पूर्व पर-मतों को उद्धृत एवं विविक्त करने की दृष्टि से इस आगम का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । बौद्ध-परम्परा के अन्तर्गत ब्रह्मजालसुत्त से यह तुलनीय है, जहां अनेक मतवादों की चर्चाएँ हैं। जैन एवं बौद्ध-परम्परा के ये दोनों सन्दर्भ ऐसे हैं, जिनसे अनुसन्धित्सु सुधीजनों को महावीर और बुद्ध के समसामयिक दार्शनिक वादों तथा मत-मतान्तरों की गवेषणा में बड़ी सहायता मिल सकती है। . सूत्रकृतांग में उद्धृत मत-मतान्तरों का वहाँ कोई नामोल्लेख नहीं है। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु तथा वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने उनकी विविध दार्शनिक वादों के रूप में पहचान कराई है। पंच महाभूतवाद पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश-ये पाँच महाभूत हैं । इन पांच महाभूतों से १. संयुत्त निकाय, दूसरा भाग ३७.१, निब्बानसुत्त ५५६ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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