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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
तत्त्व मैं सिद्धों की शरण अंगीकार करता हूँ। मैं साधुओं की-संयतियों की शरण अंगीकार करता हूँ। मैं केवलि-प्रज्ञप्त--सर्वज्ञ-प्रतिपादित धर्म की शरण अंगीकार करता है।' मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ-बुद्ध की शरण स्वीकार करता हूँ। मैं धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ। मैं संघ की शरण स्वीकार करता हूँ।
निर्वाण : परम, अनुपम सुख
मोक्ष या निर्वाण जीवन की वह दशा है, जहाँ व्यक्ति पर-भाव से सर्वथा विमुक्त हो जाता है । मुक्तावस्था, सहजावस्था है। उसका आनन्द अनुपम एवं अद्वितीय है। वह जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसे, साधने हेतु साधक सतत साधना-रत रहता है।
जिन्होंने सिद्धत्व या निर्वाण प्राप्त कर लिया, उन्हें वह अपार सुख संप्राप्त है, जिसकी कोई उपमा नहीं है।
निर्वाण परम सुख है—सर्वातिशायी आनन्द है। निर्वाण-सुख से विशिष्ट और कोई सुख नहीं है।
एक समय की घटना है, आयुष्मान् सारिपुत्त मगध के अन्तर्गत नालक गांव में प्रवास करते थे, विहरणील थे। तब एक जम्बुखादक परिव्राजक, जहाँ आयुष्मान् सारिपुत्त थे, वहाँ आया। सारिपुत्त से कुशल-क्षेम पूछा तथा वह एक तरफ बैठ गया।
परिव्राजक ने आयुष्मान् सारिपुत्र से प्रश्न किया—“आयुष्मान् सारिपुत्त ! लोग बार-बार निर्वाण की चर्चा करते हैं, आख्यान करते हैं । आयुष्मन् ! निर्वाण किसे कहते हैं ?"
सिद्ध
१. अरिहंते सरणं पवज्जामि।
सरणं पवज्जामि । साहू सरणं पवज्जामि। केवलि-पन्नतं धम्म सरणं पवज्जामि ।
-जैन २. बुद्धं सरणं गच्छामि ।
धम्म सरणं गच्छामि। संघं सरणं गच्छामि ।
-बौद्ध ३. अडलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स णत्थि उ।
-उत्तराध्ययन सूत्र ३६.६६ ४. निव्वाणं परमं सुखं ।
-मज्झिमनिकाय २.३.५. ५. निव्वाणसुखा परं नत्थि ।।
-थेरगाथा १६.१.४७८
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