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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
शत्रु मन में यह भाव उठा - कितना अच्छा हो, इस रमणीय, सुन्दर, दर्शनीय, आनन्दप्रद वेला में वह किसी श्रमण-ब्राह्मण का सत्संग करे, जिससे उसका चित्र प्रसन्न हो ।
उस द्वारा जिज्ञासित करने पर जीवक कौमारभृत्य ने भगवान् बुद्ध की विशेषताएँ बतलाते हुए कहा- "भगवान् तथागत अपने साढ़े बारह सौ अंतेवासी भिक्षुओं के साथ मेरे आम्रोद्यान में टिके हैं । भगवान् अर्हत् हैं, सम्यक् सम्बुद्ध हैं- परम ज्ञानयुक्त हैं, विद्या तथा चारित्र्य सहित हैं, सुगत हैं— सुन्दर, उत्तम गति प्राप्त किये हुए हैं, लोकविद - लोकवेत्ता— लोक को जानने वाले हैं । जैसे चाबुक लिये अश्वारोही अश्व को ठीक मार्ग पर लिये चलता है, वैसे ही सांसारिक जनों को सत् शिक्षा द्वारा सन्मार्ग पर लाने वाले हैं । वे देवताओं तथा मनुष्यों के शास्ता — उपदेष्टा हैं, उपदेश द्वारा उनका शासन करते हैं । वे बुद्ध हैं
ज्ञानवान् हैं ।"
“राजन् ! आप उनके पास चलें, धर्म के विषय में उनसे वार्तालाप करें, विचारविमर्श करें। इससे कदाचित् आपके चित्त में प्रसन्नता होगी ।""
अचल, अच्युत, अक्षय
जैन तथा बौद्ध दोनों परम्पराओं में सांसारिक वासनाओं से अतीत, जन्म-मरण से असंपृक्त, परम शान्ति में संस्थित पूर्ण पुरुषों का जो स्वरूप बताया है, उसमें मौलिक दृष्टि से बहुत कुछ सादृश्य है ।
जो शिव - कल्याणमय, अचल -- विचलन रहित, स्थिर, अरुक् — निरुपद्रव, अनन्त - अन्तरहित, अव्यावाघ - वाघारहित है, अपुनरावर्तन - जिसे प्राप्त कर लेने पर फिर वापस लौटना नहीं पड़ता - जन्म-मरणात्मक जगत् में आगमन नहीं होता, ऐसी सिद्धिगति नामक - सिद्धावस्था संज्ञक स्थिति या स्थान है, जिसे प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान् महावीर समुद्यत थे ।
अहिंसक हैं, मुनि हैं, काय का सदा संवरण किये रहते हैं—संयम का परिपालन करते हैं, वे उस अच्युत — जिसे प्राप्त कर फिर कभी वहाँ से च्युत नहीं होना पड़ता, गिरना नहीं पड़ता, स्थान को प्राप्त करते हैं, जहाँ जाने पर वे शोक से अतीत हो जाते हैं ।
शरण
जिन्हें स्वीकारने से जिनका आश्रय ग्रहण करने से जीवन में शान्ति तथा सच्चे सुख का अनुभव होता है, निर्भय-भाव उत्पन्न होता है, अन्तर्बल जागता है, वे शरण-स्थान हैं । जैन एवं बौद्ध परम्परा का एतत्सम्बद्ध चिन्तन लगभग सदृश है ।
मैं अर्हतों की शरण अंगीकार करता हूँ ।
१. दीघनिकाय १.२, सामञ्ञफल - सुत्त २. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं मव्वावाहंमपुणरावत्तयं सिद्धि गइनामधेयं
महावीरे... 'सिवमय लमरुअमणंत मक्खयठाणं संपाविउकामे... - उपासकदशांक सूत्र १.६
३. अहिंसका ये मुनयो, निच्चं कायेन संवृता । यन्ति अच्युतं ठानं, यत्थ गत्वा न सोचरे ॥
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- धम्म पद १७.५
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