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________________ ६१ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] भरी हुई - सुगठित है । यह चवालीस दाँतों से युक्त है । इसके दाँत एक समान हैं । यह अविवर-दन्त है - परस्पर सटाने पर इसके दाँतों के बीच में छिद्र प्रतीत नहीं होते। इसकी दाढ़े अत्यन्त शुक्ल त हैं । यह प्रभूत- जिह्व है - इसकी जिह्वा लम्बी है । यह ब्रह्म स्वर है— करविक पक्षी के समार स्वरयुक्त है । यह अभिनील नेत्र है- अलसी के फूल के समान इसकी आँखें नीली हैं । यह गो-पक्ष्म है— इसकी आँखों की पलकें गाय की पलकों के समान हैं । इसकी भौंहों के मध्य में मृदुल - मुलायम कपास की ज्यों सुकोमल रोम-राशि है— केशपंक्ति है । यह उष्णीष- शीर्ष है - इसका मस्तक उष्णीष की ज्यों पगड़ी के समान ऊँचा उठा हुआ है । १ I तत्त्व एक समय की घटना है, आयुष्मान् सारिपुत्त मगध के अन्तर्गत नालक ग्राम में प्रवास करते थे। तब एक जम्बुखादक परिव्राजक उनके समीप आया । उनसे कुशल-क्षेम पूछ कर वह एक तरफ बैठ गया । उसने सारिपुत्त से जिज्ञासा की - "आयुष्मान् सारिपुत्त ! लोग अर्हत्त्व की — अर्हत्पन की बार-बार चर्चा करते हैं, उस सम्बन्ध में बातें करते हैं । आयुष्मन् ! अर्हस्व किसे कहा जाता है ?" सारिपुत्त ने कहा- "आयुष्मन् ! राग-क्षय-राग का नाश, द्वेष-क्षय -- द्वेष का नाश तथा मोह-क्षय - मोह का नाश -- इसी का नाम अर्हत्त्व है ।” परिव्राजक ने पुन: पूछा - "आयुष्मन् ! क्या कोई ऐसा मार्ग है, जिसके अवलम्बन द्वारा अर्हत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है ?" सारिपुत्त ने कहा - "आयुष्मन् ! अर्हत्त्व का साक्षात्कार करने का मार्ग है । " परिव्राजक ने प्रश्न किया- "अर्हत्व के साक्षात्कार करने का कौन-सा मार्ग है ? ' सारिपुत्त ने कहा - "आयुष्मन् ! सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक् - आजीव, सम्यक् - व्यायाम, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि अर्हत्त्व के साक्षात्कार करने का यही आर्य अष्टांगिक मार्ग है ।" "आयुष्मन् ! इस मार्ग पर गतिशील रहने में कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिए ।"२ भगवान् तथागत श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के चेतवन नामक उद्यान में विहरणशील थे । उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा - " भिक्षुओ ! रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान – इन पाँच उपादान स्कन्धों के कारण, विलय, आस्वादन, दोष एवं विमुक्ति को जब भिक्षु सम्यक् रूप में जान लेता है, तब वह उनसे छूट जाता है, अर्हत् कहा जाता है । वह क्षीणास्रव होता है— उसके आस्रव क्षीण हो जाते हैं । उसका ब्रह्मचर्यवास-- श्रामण्यश्रमण जीवन की साधना परिसम्पन्न, परिसमाप्त हो जाती है । वह कृतकृत्य हो जाता हैजो करने योग्य था, उसे कर चुकता है । वह भारमुक्त हो जाता है - सांसारिक बन्धनों एवं लौकिक एषणाओं के भार से छूट जाता है । वह अनुप्राप्तसदर्थ होता है - जो सदुद्देश्य साध्य था, उसे साध चुकता है, जो लक्ष्य प्राप्य था, उसे प्राप्त कर चुकता है। वह विमुक्त हो जाता है ।' 113 आश्विन पूर्णिमा की शीतल, सौम्य चाँदनी रात थी। मगधराज वैदेही पुत्र अजात १. दीघनिकाय २.१.३ २. संयुक्त निकाय, दूसरा भाग, अरहा, सुत्त ३.६.२ ३. संयुक्त्त निकाय, पहला भाग, अरहा सुत्त २१.३.१.८ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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