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________________ ६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ भगवान् ने कहा- "भिक्षुओ ! अब से इक्यानवें कल्प पूर्व विपश्यी-भगवान्, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध संसार में अवतीर्ण हुए। वे क्षत्रिय-जाति में जन्मे। भिक्षुओ ! वे कौण्डिन्यगोत्रीय थे। उनका आयुष्य अस्सी सहस्र वर्ष परिमित था। वे बन्धुमान् राजा के यहाँ उसकी रानी वन्धुमती की कोख से बन्धुमती नामक नगरी में, जो उसकी राजधानी थी, उत्पन्न हुए। "राजा ने नैमित्तिकों-ज्योतिषियों को बुलाया और उनसे कहा—मेरे पुत्र के लक्षणों का परिलोकन करें, फल बतलाएं । ज्योतिषियों ने राजकुमार के लक्षण देखे, गणना की तथा राजा से कहा-देव ! आपका पुत्र अत्यन्त भाग्यशाली है। राजन् ! यह उन बत्तीस लक्षणों से युक्त है, जो महापुरुषों के होते हैं । इन लक्षणों वाले पुरुष की दो गतियाँ होती हैं, तीसरी नहीं होती। यदि वह गहस्थ में, संसार में रहता है तो अत्यन्त धर्मपूर्वक राज्य करने वाला, चारों दिशाओं में अपनी विजय-वैजयन्ती फहराने वाला, सर्वत्र शान्ति की स्थापना करने वाला, सात रत्नों से युक्त चक्रवर्ती सम्राट होता है। उसके सहस्राधिक पराक्रमी, शौर्यशाली शत्र-सैन्य का मर्दन करने वाले पुत्र होते हैं। वह समुद्र-पर्यन्त इस भूमंडल का दण्ड-प्रयोग के बिना, शस्त्र-प्रयोग के बिना धर्म द्वारा विजय करता है। यदि ऐसे लक्षणों वाला पुरुष घर का का, संसार का परित्याग कर प्रवजित होता है, तो वह जागतिक मोहावरण को मिटाकर सम्यक् सम्बुद्ध होता है, अर्हत् होता है। राजन् ! महापुरुषों के बत्तीस लक्षण होते हैं, जो आपके कुमार में प्राप्त हैं। यह सुप्रतिष्ठितपाद है- इसके पैर भूमि पर बराबर टिकते हैं, अत्रुटित निहित होते हैं। इसकी पगथली पर सम्पूर्ण आकृतियुक्त, नाभिने मियुक्त, सहस्र-आरयुक्त चक्र का चिह्न है। यह कुमार आयत-पाणिं है.--इसके पैरों की एड़ियाँ चौड़ी हैं। यह दीर्घ अंगुल युक्त है-इसकी अंगुलियाँ लम्बी हैं, यह मृदु-तरुण-हस्त-पादयुक्त है-इस के हाथ पैर सुकोमल तथा सुगठित हैं । यह जाल-हस्त-पाद है—इसके हाथों-पैरों की अंगुलियों के बीच में कहीं छिद्र जैसा प्रतीत नहीं होता-अंगुलियाँ सटी हुई हैं । यह उस्संखपाद है-इसके टखने पैरों से ऊपर उठे हुए हैं। यह एणीजंध है-इसकी पिंडलियां हरिण की पिंडलयों के सदृश हैं । यह आजानुबाहु है—खड़े होने पर बिना झुके इसकी दोनों भुजाएं-हथेलियाँ घुटनों का स्पर्श करती हैं। इसका वस्ति-गुह्य-जननेद्रिय कोषाच्छादित-चमड़े से आवृत है। इसकी देह की त्वचा का रंग स्वर्ण जैसा है। इसके शरीर की ऊपरी चमड़ी सूक्ष्म है-पतली है। इससे शरीर पर मिट्टी, गर्द, धूल नहीं चिपकती। इसके एक-एक रोम-कूप में एक-एक रोम उगा आ है-यह सघन रोमयक्त नहीं है। इसकी देह के रोम-केश अंजन के समान नील वर्ण युक्त हैं । वे बाईं ओर से दाहिनी ओर कुण्डलित हैं.-मोड़े लिये हुए हैं। उनके सिरे ऊपर को उठे हुए हैं। यह ब्राह्म-ऋजु-गात्र है-इसका शरीर लम्बा है, सीधा है, अकुटिल है। यह सप्त-उत्सद है-इसके शरीर के सातों अंग परिपूर्ण-आकार युक्त हैं, अमग्न हैं, अखण्डित हैं। यह सिंह-पूर्वार्धकाय है-इसके शरीर का ऊपरी आधा भाग, सीना आदि सिंह के पूर्वार्घकाय की ज्यों विशाल है, विस्तीर्ण है। यह चितान्तरांस है-इसके दोनों कन्धों का मध्यवर्ती भाग चित आपूर्ण- भरा हुआ है । वह न्यग्रोध-परिमण्डल है-बरगद की ज्यों इसके शरीर की जितनी ऊँचाई है, भुजाएँ फैलाने पर उतनी ही चौड़ाई है। यों उसकी चौड़ाई एवं ऊँचाई एक समान है । यह समवर्त स्कन्ध है-इसके कन्धों का परिमाण एक समान है, वे छोटे बड़े नहीं हैं। इसके शरीर की शिराएँ-धमनियाँ सुन्दर हैं। इसकी ठड्डी सिंह की ठड़ी के समान परिपूर्ण For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_05 www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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