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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] तत्त्व ५६ गेंढ़ी के समान क्रमिक उतार युक्त गोलाकार थीं। उनके टखने सुन्दर, सुनिष्पन्न एवं गूढ थे। उनके चरण सुप्रतिष्ठत-सुन्दर प्रतिष्ठान या गठनयुक्त थे। कच्छप के सदश उमार युक्त अतएव मनोहर प्रतीयमान थे। उनके पैरों की अंगुलियाँ यथाक्रम बड़ी-छोटी, सुसंहत -परस्पर सुन्दर रूप में सटी हुई थीं । पैरों के नख उन्नत, पतले, ताम्र के सदृश लाल एवं चिकने थे। उनके पदतल लाल कमल पत्र के तुल्य सुकुमार एवं सुकोमल थे। उनकी देह उत्तम पुरुषोचित एक हजार आठ लक्षण युक्त थी। उनके पैर गिरि, नगर, मकर, समुद्र तथा चक्र आदि उत्तम चिह्नों एवं स्वस्तिक आदि मंगल-चिह्नों से सुशोभित थे। उनका रूप असाधारण था। उनका तेज धूमरहित वह्नि-ज्वाला, विद्युत्-दीप्ति एवं उदीयमान सूर्य रश्मियों के सदृश था। वे हिंसा आदि आस्रव-वजित, ममत्वशून्य एवं अपरिग्रही थे । वे भव-प्रवाह-जन्म-मरण के चक्र को उच्छिन्न-ध्वस्त कर चुके थे। वे निरुपलेप --उपलेपरहित-बाह्य दृष्टि से निर्मल देहयुक्त एवं आभ्यन्तर दृष्टि से कर्म-बन्ध हेतु मूलक उपलेप से रहित थे । वे राग, प्रेम, द्वेष एवं मोह को विच्छिन्न कर चुके थे। निर्ग्रन्थ-प्रवचन के सन्देश-वाहक, धर्म शासन के अधिनायक तथा श्रमणवृन्द के अधिपति थे। उनसे संपरिवृत थे। जिनेश्वरों के चौंतीस बुद्धातिशय तथा चौंतीस सत्यवचनातिशय युक्त थे, अन्तरिक्षवर्ती छत्र, चँवर, गगनोज्ज्वल स्फटिक-रचित पादपीठ-युक्त सिंहासन तथा धर्मध्वज उनके पुरोगामी थे। चवदह हजार श्रमण एवं छत्तीस हजार श्रमणियों से संपरिवृत थे।' एक समय का इतिवृत्त है, भगवान् बुद्ध श्रावस्ती के अन्तर्गत अनाथपिण्डिक के जेतवन नामक उद्यान में करेरी नामक कुटी में विराजित थे। भगवान् के सन्निधिवर्ती भिक्षु भिक्षार्थ गये, वापस लौटे, भोजन किया। तत्पश्चात् कुटी की पर्णशाला में बैठने हेतु निर्मित खुले छप्पर में एकत्र हुए। उन भिक्षुओं में पूर्व-जन्म के सम्बन्ध में चर्चा चलने लगी। भगवान् ने भिक्षुओं के बीच चलती इस चर्चा को अपने शुद्ध, असामान्य, दिव्य कानों द्वारा सुन लिया। भगवान् अपने आसन से उठे । जहाँ करेरी कुटी थी, पर्णशाला थी, वहाँ गये । वहाँ जाकर बिछे हुए आसन पर बैठे । बैठकर भगवान् ने उन भिक्षुओं से पूछा"भिक्षुओ ! अभी तुम क्या बातचीत कर रहे थे ? बातचीत में कहाँ तक आकर रुक गये?" भगवान् द्वारा यों कहे जाने पर भिक्षुओं ने कहा- “भन्ते ! हम भिक्षा से वापस लौटे, भोजन किया। भोजन करने के अनन्तर पर्णशाला में बैठे, पूर्व जन्म के सम्बन्ध में परस्पर वर्तालाप करने लगे-पूर्व जन्म इस प्रकार का होता है, उस प्रकार का होता है; इत्यादि । भन्ते ! जब हममें परस्पर यह प्रसंग चल रहा था, इतने में भगवान् यहाँ पधार गये।" "भिक्षुओ ! क्या तुम्हारी पूर्व-जन्म का वृत्त सुनने की इच्छा है ?" "भन्ते ! यह उपयुक्त समय है। सुगत ! यह समुचित समय है। भगवान् हमें पूर्वजन्म-विषयक धार्मिक कथानक श्रवण कराएं। भगवान् जो कहेंगे, भिक्षु उसका श्रवण कर उसे हृदयंगम करेंगे।" "भिक्षुओ ! अच्छा, मैं कहता हूँ, तुम सुनो, अच्छी तरह मन लगाकर सुनो।" "बहुत अच्छा भन्ते ! आप कहें।" १. औपपातिक सूत्र, सूत्र १६ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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