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आगम और त्रिपिटक : ए
[खण्ड : ३ वे अज्ञानी, आरंभ-निश्रित-हिंसादि आरंभ-समारंभरत पुरुष अज्ञानमय एक अन्धकार से दूसरे अन्धकार में जाते हैं।'
चूर्णिकार एवं वृत्तिकार ने इस (अकर्त वाद के) सिद्धान्त को सांख्य दर्शन से सम्बद्ध बतलाया है।
आत्मषष्ठवाद
इस लोक में पाँच महाभूत हैं, छठी आत्मा है। आत्मा एवं लोक शाश्वत हैं । ऐसा कइयों का मत है।
वे छहों पदार्थ दोनों प्रकार से हैतुक-हेतु पूर्वक तथा निहैतु क-हेतु के बिना भी विनष्ट नहीं होते । असत्-अस्तित्व-शून्य-अविद्यमान पदार्थ कभी उत्पन्न नहीं होता। सभी भाव-पदार्थ नियतीभाव-नियतता-नित्यत्व लिये हैं।
वृविकार आचार्य शीलांक के अनुसार यह वेदवादी सांख्यों तथा शैवाधिकारियोंवैशेषिकों का अभिमत है।
क्षणिकवाद
कई बाल-अज्ञानी क्षणयोगी-क्षणमात्र जुड़े रहने वाले–टिकनेवाले रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान-पाँच स्कन्धों को ही मानते हैं। वे उनसे भिन्न, अभिन्न, हैतुक-कारणोत्पन्न, अहैतुक-बिना कारणोत्पन्न आत्मा को स्वीकार नहीं करते।
कइयों की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु-ये चार धातुरूप हैं। शरीर रूप में जब ये एकत्र-एकाकार होते हैं, तब इन्हें जीव या आत्मा कहा जाता है।
वत्तिकार के अनुसार यहाँ सूत्रकार का क्षणिकवाद के अन्तर्गत पञ्चस्कन्धवाद तथा चातुर्धातुवाद की ओर संकेत है।
सूत्रकार ने आगे परमतवादियों के इस दावे की चर्चा की है कि चाहे कोई घर में रहे, वन में रहे, प्रव्रजित हो, उनके दर्शन को स्वीकार करले तो वह सब दु:खों से छूट जाता है।
आगे सुत्रकार ने इस दावे का खण्डन करते हुए कहा है कि ऐसा कहने वाले धर्म का रहस्य नहीं जानते, संसार-सागर को नहीं तैर पाते, नहीं पार कर पाते, पुन:-पुनः गर्भ में आने से, जन्म लेने से छूट नहीं पाते, दुःख से छूट नहीं पाते, मौत से छूट नहीं पाते।
वे मृत्यु, व्याधि और वृद्धत्व से परिव्याप्त संसार के-आवागमन के चक्र में पड़ेरहते हैं, नानाविध कष्ट झेलते हैं।
१. सूत्रकृतांग १.१.१.१३-१४ २. सूत्रकृतांग १.१.१.१५-१६ ३. सूत्रकृतांग १.१.१.१७-१८ ४. पञ्चविंशति-तत्त्वज्ञो, यत्र कुत्राश्रमे वसेत् । शिखी मुण्डी जटोवापि, मुच्यते नात्र संशयः ।।
-सांख्य ५. सूत्रकृतांग १.१.१.१६-२६
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