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________________ उच्य तत्त्व : आचार : अथानुयोग] तत्त्व हिंसातीत होने के कारण किसी के भी लिए भय के अनुत्पादक, चाप्रदायक-सहज्ञानमय नेत्रपद, मार्गप्रदायक-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक चारित्ररूप साधना-पथ के प्रदाता -उद्बोधयिता, जिज्ञासामय, मुमुक्षामय प्राणियों के लिए शरण प्रदायक, जीवनप्रदआध्यात्मिक जीवन के प्रदाता-उन्नायक, दीपक के तुल्य समस्त पदार्थों के प्रकाशक अथवा संसार रूप महासमुद्र में भटकते हुए लोगों के लिए द्वीप के तुल्य शरण-स्थल, धर्मसाम्राज्य के चक्रवर्ती, निर्बाध, निरावरण ज्ञान, दर्शन आदि के संवाहक, व्यावृत्तछमा-अज्ञान आदि छद्म-आवरण से प्रतीत, जिन-राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि के विजेता. ज्ञायक-रागादि भावमय सम्बन्धों के परिज्ञाता, ज्ञापक-रागद्वेषादि के विजय का मार्ग दिखाने वाले, तीर्ण -संसार-समुद्र को तैर जानेवाले, तारक-संसार समुद्र के पार लगानेवाले, मुक्त--आभ्यन्तर एवं बाह्य ग्रन्थियों से--तनावों से उन्मुक्त, मोचक-अन्य प्राणियों को धर्म-देशना द्वारा प्रन्थियों एवं तनावों से उन्मुक्त करने वाले, बुद्ध-बोधयोग्य, जानने योग्य ज्ञेय तत्त्व का बोध प्राप्त किए हुए, बोधक-अन्यों के लिए तत्सम्बन्धी बोध-प्रदायक, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, शि -श्रेयस्कर. कल्याणकर. अचल-चांचल्यरहित, सस्थिर. उपद्रवजित, अन्त.क्षय एवं बाधारहित, अपुनरावर्तन-जन्म-मरण, रूप आवागमन से रहित, सिद्धगति-सिद्धावस्था प्राप्ति हेतु संप्रवृत्ति , अर्हत् –पूजास्पद, रागादिविजयी, जिन- कैवल्ययुक्त, सात हाथ शारीरिक यतायुक्त, समयतुरंस्रसंस्थानसंस्थित, वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-अस्थि-संचय यक्त, शरीरान्तर्वती वायु के समुचित वेग से संयुक्त, कंक पंक्षी के सदृश दोषजित गुदाशय युक्त, कपोत की ज्यों पाचन-शक्ति-समन्वित, पक्षी तुल्य निर्लेप अपान स्थान युक्त, पृष्ठ तथा उदर मध्यवर्ती सुपरिणत, सुन्दर, सुगठित, पार्श्व तथा जंघायुक्त, पद्म-कमल या पद्म संज्ञक सुरभित पदार्थ एवं उत्पल-नील कमल अथवा उत्पल कुष्ट-संज्ञक सुरभित पदार्थ के समान सुगन्धित निःश्वास-समायुक्त छवि-उत्तम त्वचा युक्त, रोगवर्जित, उत्तम, प्रशस्त अत्यन्त श्वेत देह, मांस युक्त, जल्ल-कठिनता से छूटनेवाले मैल, मल-सरलता से छूटनेवाले मैल, कलंक-धब्बे, पसीने एवं मिट्टी लगने से विकृतिरहित देहयुक्त, निरुपलेप-अत्यधिक स्वच्छ, दिप्तिमय, उद्योतमय अंगयुक्त, अत्यन्त सघन, सुबद्ध स्नायुबन्ध-संयुक्त, उत्तम लक्षण युक्त, पर्वत शृंग की ज्यों उन्नत मस्तक शोभित भगवान् महावीर ग्रामनुग्राम सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पानगरी के बाह्य उपनगर में पहुँचे, जहाँ से उन्हें चम्पा के अन्तर्गत पूर्णभद्र नामक चैत्य में पदार्पण करना था। सूक्ष्म रेशों से आपूर्ण सेमल के फल के फटने से निकलते हुए रेशों के सदृश, कोमल, स्वच्छ, प्रशस्त्र, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण-मुलायम, सुगन्धमय, सुन्दर, नीलम, भींग, नील, काजल एवं परिपुष्ट भौंरों जैसे चमकीले, काले, गहरे, धुंघराले, छल्लेयुक्त केश उनके मस्तक पर विद्यमान थे । जिस त्वचा पर केश उद्भिन्न थे, वह दाडिम के पुष्प तथा स्वर्ण-सदृश दीप्तियुक्त, लाल, निर्मल और स्निग्ध थी। उनका श्रेष्ठ उत्तमांग-मस्तक का उपरितन माग भरा हुआ एवं छत्राकार था । उनका ललाट वण-चिह्नों-फोड़े-फुन्सी आदि के घाव के निशानों से रहित, समतल, सुन्दर तथा निष्कलंक अर्धचन्द्र की ज्यों भव्य था। उनका मुख पूर्णचन्द्र के तुल्य सौम्य था। उनके कान मुंह के साथ सुन्दर रूप में समायुक्त तथा समुचित प्रमाणोपेत थे, दीखने में बड़े सुहावने प्रतीत होते थे। उनके कपोल परिपुष्ट एवं मांसल थे। उनकी भ्रूलता किञ्चित आकृष्ट धनुष के सदृश तिर्यक्-टेढ़ी, काले मेघ की रेखा के तुल्य कृश--पतली, काली तथा कोमल थी। उनके नेत्र विकसित पुण्डरीक--श्वेत कमल के Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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