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________________ ५६ भगवद्गुण आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन भगवान् शब्द अपने आप में अनुपम, अद्भुत महत्त्व लिये है, वह परम शुद्धावस्था, निर्विकल्पावस्था का द्योतक है । भगवान् के अतिशय असामान्य हैं। जैन एवं बौद्ध परंपरा में भगवान् का प्रायः ऐसा ही स्वरूप विकसित है । भगवान् महावीर, जो प्रेम, राग, द्वेष तथा मोह का क्षय कर चुके थे, उन्हें जीत चुके थे, चम्पा नगरी में पधारे। ' [ खण्ड : ३ उनका राग मग्न हो चुका है - वे राग जीत चुके हैं, द्वेष मग्न हो चुका है - वे द्वेष को जीत चुके हैं, उनका मोह मग्न हो चुका है - वे मोह को जीत चुके हैं, वे अनास्रव हो चुके हैं - उनके आस्रव मिट चुके हैं, उनके पाप-कर्म मग्न हो चुके हैं - वे पाप कर्मों को नष्ट कर चुके हैं, इसलिए वे भगवान् कहे जाते हैं । " तीर्थंकर, अर्हत्, बोधिसत्त्व श्रमण संस्कृति में तीर्थंकर, अर्हत् एवं बोधिसत्त्व - ये अति उच्च व्यक्तित्व संपन्न सद्गुणनिष्ठ, रागद्वेषातीत, असाधारण दैहिक सम्पत्तियुक्त सुन्दरतम श्रेष्ठतम पुरुषों के परिज्ञापक हैं। आभ्यन्तर तथा बाह्य — दोनों अपेक्षाओं से उनके व्यक्तित्व में एक ऐसी पावन चमत्कृति होती है, जो सन्निधि में आने वाले को सहसा प्रभावित किये बिना नहीं रहती । जैन तथा बौद्ध - दोनों परंपराओं में इन उत्तम पुरुषों का जो विस्तृत विवेचन अथवा आपाद-मस्तक वर्णन आया है, वह शाब्दिक दृष्टि से काफी भिन्न होने के बावजूद भावात्मक दृष्टि से बहुत मिलता-जुलता है । बौद्ध वाङ्मय में एतत्सम्बद्ध वर्णन में जहाँ कुछ संक्षिप्त है, वहाँ जैन - वाङ्मय में अत्यधिक विस्तार है। जैसा भी हो, सारांशतः दोनों में बहुत कुछ साम्य एवं संगति है । श्रमण – अति उग्र तपोमय, साधनामय श्रम में निरत, आध्यात्मिक ऐश्वर्ययुक्त उपद्रवों एवं विघ्नों के मध्य साधना पथ पर धैर्यपूर्वक सुस्थिर भाव से गतिशील, आदिकर - अपने समय में धर्म के आदि प्रवर्तक, तीर्थंकर - श्रमण श्रमणी - श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म- तीर्थ धर्म संघ के स्थापक, स्वयं सम्बुद्ध - बिना किसी अन्य हेतु के स्वयं अन्तःप्रेरणा से बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम - मानवों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह — मनुष्यों में आत्मशौर्य की दृष्टि से सिंह सदृश, पुरुषवर पुण्डरीक - लोक में रहते हुए कमल की ज्यों लेपरहित, आसक्तिवर्जित, पुरुषवर - गन्ध हस्ती - मनुष्यों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान - जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भयभीत होकर चले जाते हैं, उसी प्रकार किसी स्थान में जिनके प्रविष्ट होते ही भीषण अकाल महामारी आदि अनिष्ट मिट जाते है, ऐसे प्रभावक सातिशय श्रेष्ठ व्यक्तित्व से युक्त, अभयप्रदायक – जगत् के समस्त जीवों के लिए अभयप्रद - सर्वथा १. तेणं कालेणं तेणं समराणं समणे भगवं महावीरे ववगय-पेम राग-दोस मोहे" • चंपं नगरि समोसरिउकामे । - औपपातिक सूत्र १६ भग्गमोहो अनासवो । भगवा तेन वुच्चति ॥ - विसुद्धिमग्ग ७.५६ २. भग्गरागो मग्गदोसो, भग्गास्स पापका धम्मा, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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