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५४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसने इस लोक में पुण्य तथा पाप-दोनों की आसक्ति का परित्याग कर दिया है, जो शोक से अतीत है, मलरहित है, शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो चन्द्र की भांति उज्ज्वल है, शुद्ध है, बिप्रसन्न-अत्यन्त प्रसादमय-द्युतिमय है, स्वच्छ है, जिसकी जन्म जन्मान्तर की तृष्णा क्षीण हो गई है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो इस दुर्गम संसार में जन्म-मरण के आवागमन के चक्र में डालनेवाले मोहमय, विपरीत पथ का परित्याग कर चुका है, जो संसार का पारगामी है, जो ध्यान-रत है, संसार-सागर को तीर्ण कर गया है, जो अनाकांक्ष है तथा जो अकथंकथी है-निर्वाण की चर्चा करता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो काम-भोगों का परिवर्जन कर अनागार-गृहत्यागी, प्रवजित-संन्यस्त हो गया है, जिसकी कामनाएं नष्ट हो गई हैं, जन्म-परम्परा मिट गई है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसने तष्णा का त्याग कर दिया है, जो आगाररहित है, प्रव्रजित है, जिसकी तृष्णा तथा पुनर्मव क्षीण हो गये हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।'
जिसने मानवीय भोगों के लाभ का परित्याग कर दिया है, जिसने दिव्य-देवगम्य भोगों को छोड़ दिया है, जो सब प्रकार के लाभों से विसंयुक्त है–संयोगरहित-संगरहित
१. अकक्कसं विज्ञापनि, गिरं सच्चं उदीरये। याय नाभिसजे किञ्चि, तमहं ब्र मि ब्राह्मणं ।। यो'ध दीघं वा रस्सं वा, अणुं थूलं सुभासुभं । लोके अदिन्नं नादियते, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥ आसा यस्स न विज्जन्ति, अस्मिं लोके परम्हि च। निरासयं विसंयुत्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। यस्सालया न विज्जन्ति, अज्ञाय अकथंकथी। अमतोगधं (अनुप्पत्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। यो' ध पुञञ्च पापञ्च, उभो सङ्गं उपच्चगा। असोकं विरजं सुद्धं, तमहं ब्र मि ब्राह्मणं ॥ चन्दं' व विमलं सुद्धं, विप्पसन्नमनाविलं । नन्दीभव परिक्खीणं, तमहं ब्रमि ब्राह्मणं ॥ यो इमं पलिपथं दुग्गं, संसारं मोहमच्चगा। तिण्णो पारगतो झायी. अनेजो अकथंकथी। अनपादाय निब्बतो. तमहं ब्रमि ब्राह्मणं ।। यो'ध कामे पहत्त्वान, अनागारो परिब्बजे । कामभव परिक्खीणं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ यो'ध तण्हं पहत्त्वान. अनागारो परिब्बजे । तण्हाभव परिक्खीणं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
-धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग २६-३४
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