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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
तत्त्व
५३ ___ जो न गृहस्थों-गृहवासियों में लिप्त है, न अगृहस्थों-गृहत्यागियों में लिप्त है, जो गह-लक्ष्य के बिना-बेठिकाने पर्यटन करता है, जो अल्पेच्छा-अत्यन्त ससीम इच्छाएं लिये है, एक प्रकार से जो बेचाह है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो त्रस-चर या गतिशील तथा स्थावर-अचर या गतिशून्य सभी प्राणियों पर न प्रहार करता है, न उन्हें मारता है और न औरों से उन्हें मरवाता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो विरुद्ध -विरोधयुक्त जनों के प्रति अविरुद्ध रहता है, जो दण्डयुक्त जनों के बीच दण्ड-रहित रहता है जो संग्रहियों-संग्रहयुक्त-परिग्रह युक्त जनों के बीच असंग्रही सर्वथा संग्रहशून्य रहता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जैसे आरे के अग्रभाग से सरसों का दाना गिर जाता है, उसी प्रकार जिसका राग, द्वष, अहंकार एवं द्रोह गिर गया है जिसने इन्हें गिरा डाला है, अपने से पृथक् कर दिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।'
जो कर्कश न हो, तथ्य का प्रकाश करनेवाली हो, सत्य हो, जिससे किसी को भी पीड़ा नहीं होती हो, जो ऐसी वाणी बोलता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो दीर्घ या ह्रस्व-बड़े या छोटे, अणु या स्थूल-सूक्ष्म या मोटे, शुभ या अशुभ बिना दिये कोई पदार्थ नहीं लेता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
न जिसे इस लोक में आशाएँ हैं और न परलोक में ही आशाएँ हैं-दोनों ही लोकों में जिसे कोई चाह नहीं रह गई है तथा जो विसंयुक्त-.. आसक्तिवजित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसके आलय-तृष्णा नहीं है-जो तृष्णा से ऊँचा उठ गया है, जो सम्यक रूप में जानकर अकथ-पद का-परमसत्य का कथन करता है, जिसने प्रगाढ़ अमत को प्राप्त कर
१. गम्भीरपझं मेधावि, मग्गामग्गस्स कोविदं । उत्तमत्थं अनुप्पत्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं । असंसर्से गहठेहि, अनागारेहि चूभयं । अनोकसारि अप्पिच्छं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। निधाय दण्डं भूसेसु, ततेसु थावरेसु च । यो न हन्ति न धातेत्ति , तमहं ब्रू मि ब्राह्मणं ॥ अविरुद्धं विरुद्धेसु, अत्त दण्डेसु निब्बुतं । सादानेसु अनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ यस्स रागो च दोसो च, मानो मक्खो च पातितो । सासपोखि आरग्गा, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥
-धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग २१-२५
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