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________________ ५२ आगम और त्रिपिटक : ए [खण्ड : ३ कर पाता, परिध को-परंपरावश ऊह्यमान अतथ्यों के मार को उत्क्षिप्त कर डालता हैउठा फैकता हैं, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ। जो अदुष्ट-अदूषित हुए बिना-अविकृत मन रहता हुआ आक्रोश-दुर्वचन, गाली, वध एवं बन्धन को सहन करता है, क्षमा-बल ही जिसका वास्तविक बल है- सेना है, जो स्वयं उसका सेनानायक है-जो शान्ति का धनी है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। __ जो अक्रोधन-क्रोधरहित है, व्रतवान् है—व्रतों का पालन करता है, शीलवान् है, अनुश्रुत है--बार-बार सत्-श्रवण करने वाला है-बहुश्रुत है, दमयुक्त है—संयमयुक्त है, अन्तिम शरीर युक्त है--विद्यमान शरीर के पश्चात् जन्म धारण नहीं करने वाला हैइसी देह से निर्वाण प्राप्त करने वाला है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं। जैसे कमल-पत्र पर जल लिप्त नहीं होता नहीं चिपकता, आरे की नोक पर जैसे सरसों का दाना नहीं ठहरता, उसी प्रकार जो काम-भोगों में लिप्त नहीं होता, उनमें नहीं अटकता, उसे मैं ब्राह्मण कह जो इसी जन्म में अपना दुःख-क्षय जान लेता है, दुःख-क्षय का मार्ग समझ लेता हैउसका अनुसरण करता है, जो निर्भार है-जिसने जागतिक मोह-ममता का बोझा उतार फैका है, जो संयोग-संग या आसक्तिरहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। __ जो गंभीर-प्रज्ञाशील है, मेघाशील है, मार्ग एवं अमार्ग को जानता है, जो उत्तम अर्थ-प्रशस्त लक्ष्य-परम सत्य को प्राप्त किये हुए है, उसको मैं ब्राह्मण कहता हूँ। १. पंसुकूलधरं जन्तुं, किसं धमनि-सन्थतं । एक वनस्मिं झायन्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ न चाहं ब्राह्मण ब्रूमि, योनिजै मत्तिसंभवं । ‘भोवादि' नाम सोहोति, स वे होति सकिञ्चनो। अकिञ्चनं अनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। सव्वसञोजन छत्वा, यो वे न परितस्सति । सङ्गातिगं विस त्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। छत्वा नन्दि वरत्तञ्च, सन्दानं सहनुक्कम। उक्खित्त-पलिघं बुद्धं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। अक्कोसं बघबन्धञ्च, अदुट्ठो यो तितिक्खति। खन्तिबलं बलानीकं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ अक्कोधनं वतवन्तं, शीलवन्तं अनुस्सदं । दन्तं अन्तिमसारीरं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। बारि पोक्खरपत्ते, व, आरग्गरिव सासपो। यो न लिप्पति कामेसु, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। यो दुक्खस्स पजानाति, इधेव खयमत्तनो। पन्नभारं विस तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। -धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग १३-२० ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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