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आगम और त्रिपिटक : ए
[खण्ड : ३
कर पाता, परिध को-परंपरावश ऊह्यमान अतथ्यों के मार को उत्क्षिप्त कर डालता हैउठा फैकता हैं, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ।
जो अदुष्ट-अदूषित हुए बिना-अविकृत मन रहता हुआ आक्रोश-दुर्वचन, गाली, वध एवं बन्धन को सहन करता है, क्षमा-बल ही जिसका वास्तविक बल है- सेना है, जो स्वयं उसका सेनानायक है-जो शान्ति का धनी है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
__ जो अक्रोधन-क्रोधरहित है, व्रतवान् है—व्रतों का पालन करता है, शीलवान् है, अनुश्रुत है--बार-बार सत्-श्रवण करने वाला है-बहुश्रुत है, दमयुक्त है—संयमयुक्त है, अन्तिम शरीर युक्त है--विद्यमान शरीर के पश्चात् जन्म धारण नहीं करने वाला हैइसी देह से निर्वाण प्राप्त करने वाला है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं।
जैसे कमल-पत्र पर जल लिप्त नहीं होता नहीं चिपकता, आरे की नोक पर जैसे सरसों का दाना नहीं ठहरता, उसी प्रकार जो काम-भोगों में लिप्त नहीं होता, उनमें नहीं अटकता, उसे मैं ब्राह्मण कह
जो इसी जन्म में अपना दुःख-क्षय जान लेता है, दुःख-क्षय का मार्ग समझ लेता हैउसका अनुसरण करता है, जो निर्भार है-जिसने जागतिक मोह-ममता का बोझा उतार फैका है, जो संयोग-संग या आसक्तिरहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
__ जो गंभीर-प्रज्ञाशील है, मेघाशील है, मार्ग एवं अमार्ग को जानता है, जो उत्तम अर्थ-प्रशस्त लक्ष्य-परम सत्य को प्राप्त किये हुए है, उसको मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
१. पंसुकूलधरं जन्तुं, किसं धमनि-सन्थतं ।
एक वनस्मिं झायन्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ न चाहं ब्राह्मण ब्रूमि, योनिजै मत्तिसंभवं । ‘भोवादि' नाम सोहोति, स वे होति सकिञ्चनो। अकिञ्चनं अनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। सव्वसञोजन छत्वा, यो वे न परितस्सति । सङ्गातिगं विस त्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। छत्वा नन्दि वरत्तञ्च, सन्दानं सहनुक्कम। उक्खित्त-पलिघं बुद्धं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। अक्कोसं बघबन्धञ्च, अदुट्ठो यो तितिक्खति। खन्तिबलं बलानीकं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ अक्कोधनं वतवन्तं, शीलवन्तं अनुस्सदं । दन्तं अन्तिमसारीरं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। बारि पोक्खरपत्ते, व, आरग्गरिव सासपो। यो न लिप्पति कामेसु, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। यो दुक्खस्स पजानाति, इधेव खयमत्तनो। पन्नभारं विस तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
-धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग १३-२०
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