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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
जो देह से, वाणी से तथा मन से दुष्कृत-बुरे कार्य-पाप-कृत्य नहीं करता--इन तीन स्थानों से संवृत रहता है-संवर युक्त रहता है- इन्हें संवृत या आवृत किये रहता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिससे सम्यक् संबुद्ध-भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म को जाने, उसे उसको उसी प्रकार नमन करना चाहिए, जैसे ब्राह्मण अग्निहोत्र को नमन करता है।
जटा रखने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, न गोत्र और जन्म से ही कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, धर्म है, वही पवित्र होता है, वही ब्राह्मण होता है।
दुर्मेधस्-दुर्बुद्धे ! जटाएँ रखने मात्र से तुम्हें क्या सधेगा? मृगछाला पहनने मात्र
रा क्या बनेगा? यदि तम्हारा आभ्यन्तर-आन्तरिक जीवन-अन्तर्वत्तियाँ गहन हैं तो तुम मात्र बाहर से क्या परिमार्जन-प्रक्षालन करते हो-धोते हो? इससे क्या सधने वाला है ?'
जो फटे-पुराने चीथड़े धारण करता है, जो कृश है-सतत तपोमय, आराधनामय जीवन जीने के कारण देह से दुबला है, जिसके शरीर की नाड़ियाँ एक-एक दिखाई देती हैं, जो एकाकी वन में ध्यान-निरत रहता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
ब्राह्मण-जाति में उत्पन्न होने मात्र से ब्राह्मण जातीया माता के उदर से जन्म लेने मात्र से मैं किसी को ब्राह्मण नहीं कहता। ब्राह्मण वह है, जो अल्पपरिग्रही है-सन्तोषी हैबहुत थोड़े में सन्तोष करने वाला है, जो अकिञ्चन है---परिग्रह के रूप में कुछ नहीं रखता जो अनादान है-कुछ भी लेने की इच्छा नहीं रखता।
जो सब प्रकार के संयोजनों—बन्धनों को छिन्न कर डालता है, जो परित्रस्त नहीं होता-निर्भय होता है, जो संग से-आसक्ति से अतीत होता है, निरासक्त होता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो नन्दी-क्रोध को अच्छिन्न कर डालता है। जो वरत्रा--तृष्णा रूपी रज्जु को संदान-मतवादों के प्रग्रह को, हनुक्रम-मुंह को बाँधने के जाबे-जाडिए की ज्यों भ्रम तथा संशय-जनित बन्धन को, जिसके कारण वह साहस के साथ सत्य को उद्भाषित नहीं
१. यस्स कायेन वाचा य, मनसा नत्थि दुक्कतं । संवृतं तीहि ठाने हि, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। यम्हा धम्म विजानेय्य, सम्मासम्बुद्ध-देसितं। सक्कच्चं तं नमस्सेय्य, अग्निहुत्तं च ब्राह्मणो ।। न जटाहि न गोत्तेहि, न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चञ्च धम्मो च, सो सुची सो च ब्राह्मणो।। किं ते जटाहि दुम्मेध ! कि ते अजिन साटिया। अब्भन्तरं तं गहनं, बाहिरं परिमज्जसि ॥
-धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग ६-१२
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