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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ अपार एवं पारापार से अतीत है, बीतदर-वीतमय या भयशून्य है, विसंयुक्त-आसक्तिशून्य है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ।'
जो ध्यान-निरत है, विरज-रागरहित-मल रहित है, आसीन है-आसन साधे हुए है--स्थिरतायुक्त है, कृतकृत्य है, अनास्रव-आस्रव-रहित-चित्तमल-रहित है, जिसने उत्तम अर्थ---परमार्थ-परम सत्य का साक्षातकार कर लिया है। उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
दिन में सूरज तपता है, रात में चन्द्रमा प्रकाशित होता है-अपनी ज्योत्स्ना फैलाता है, सन्नद्ध-कवचयुक्त होकर क्षत्रिय तपता है-उद्योतित होता है, ध्यानयुक्त होकर ब्राह्मण तपता है तथा बुद्ध अहर्निश अपने तेज द्वारा सर्वोत्कृष्ट रूप में तपते हैं।
जिसने अपने पाप प्रक्षालित कर बहा दिये, वह ब्राह्मण है। जो समचर्या-समता का आचरण करता है, वह श्रमण कहा जाता है । जिसने अपने चैत सिक मलों को अपगत कर दिया, वह प्रवजित कहा जाता है।
ब्राह्मण पर प्रहार-आघात नहीं करना चाहिए। यदि कोई प्रहार करे तो ब्राह्मण को प्रहारक पर कुपित नहीं होना चाहिए। ब्राह्मण का जो हनन करता है, उसको धिक्कार है। जो ब्राह्मण हनन करने वाले पर क्रुद्ध होता है, उस ब्राह्मण को भी धिक्कार है।
ब्राह्मण प्रिय पदार्थों से अपना मन दूर कर लेता है, यह उसके लिए कम श्रेयस्कर नहीं है । जहाँ-जहाँ मन हिंसा से निवृत्त होता है, वहाँ-वहाँ दुःख स्वयं शान्त हो जाते हैं । १. छिन्द सोतं परक्कम, कामे पनुद ब्राह्मण ! ।
संखारानं खयं त्रत्वा, अकतञ्जूसि ब्राह्मण ! ॥ यदा द्वयेसु धम्मेसु, पारगू होति ब्राह्मणो। अथस्स सब्बे संयोगा, अत्थं गच्छन्ति जानतो॥ यस्स पारं अपारं वा पारापारं न विज्जति। बीतदरं विस तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
-धम्मपद, ब्राह्मणवग्गो १-३ २. झायिं विरजमासीनं, कतकिच्चं अनासवं ।
उत्तमत्थं अनुप्पत्तं, तमहं ब्र मि ब्राह्मणं ।। दिवा तपति आदिच्चो, रत्तिं आभाति चन्दिमा। सन्नद्धो खत्तियो तपति, झायी तपति ब्राह्मणो। अथ सब्बमहोरत्ति, बुद्धो तपति तेजसा ।। वाहितपापो' नि ब्राह्मणों, समचरिया समणो'ति वुच्चति । पब्बाजयमत्तनो मलं, तस्मा पब्बजितो'ति वुच्चति ॥ न ब्राह्मणस्स पहरेय्य, नास्स मुंचेथ ब्राह्मणो। घि ब्राह्मणस्स हन्तारं, ततो धि यस्स मुञ्चति ॥ न ब्राह्मणस्सेतद किञ्चि सेय्यो, यदा निसेधो मनसो पियेहि । यतो यतो हिंसमनो निवत्तति । ततो ततो सम्मति एव दुक्खं ॥
-धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग ४-८
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