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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
तत्त्व
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"समता की आराधना से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के परिपालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से—ज्ञानानुशीलन से मुनि होता है तथा तपश्चरण से तापस होता है। कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शुद्ध होता है।
___ "यह धर्म परम ज्ञानी सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित है। इसके आचरण से व्यक्ति स्नातक-शुद्ध, पवित्र बनता है। ऐसे सर्व कर्म-वि निर्मुक्त-समग्र कर्म-जंजाल से छूटे हुए पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं।
"उपर्युक्त गुणों से युक्त द्विजोत्तम- उत्तम ब्राह्मण होते हैं, वे अपना तथा औरों का उद्धार करने में सक्षम होते हैं।"
यों संशय अच्छिन्न हो जाने पर संदेह मिट जाने पर ब्राह्मण विजयघोष मुनि को सम्यक् रूप में पहचान लेता है-उनके संयममय तपोमय व्यक्तित्व से परिचित हो जाता है। वह परितुष्ट होता हुआ हाथ जोड़कर उन्हें कहता है-आपने मुझे ब्राह्मणत्व के सही स्वरूप का बड़ा सुन्दर उपदेश दिया।'
धम्मपद त्रिपिटकों में से सुत्तपिटक के पन्द्रह निकायों में पाँचवें खुद्द कनिकाय के पन्द्रह ग्रन्थों में दूसरा ग्रन्थ है। धम्मपद में छब्बीस वर्ग या विभाग है । अन्तिम विभाग का नाम ब्राह्मण वर्ग है, जिसमें ब्राह्मण के स्वरूप का मार्मिक विश्लेषण है । वह इस प्रकार है-ब्राह्मण ! तुम तृष्णा के स्रोत को छिन्न कर डालो। पराक्रमपूर्वक कामनाओं को भगा दो-अपने में से निकाल फेंको । संस्कारों के-उपादान-स्कन्धों के विनाश को जानकर उन्हें विनष्ट करने की अभिज्ञाता प्राप्त कर, उन्हें विनष्ट कर तुम अकृत-निर्वाण को प्राप्त कर सकोगे।
जब ब्राह्मण दो धर्मों में-चैतसिक संयम में तथा भावना में पारंगत हो जाता है तब उसके समस्त संयोग-बन्धन विलुप्त हो जाते हैं।
जिसके पार--नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा, शरीर एवं मन और अपार-रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श एवं धर्म तथा पारापार-मैं और मेरापन नहीं हैं, जो इनसे...पार
१. समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।। कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दी हवइ कम्मुणा ।। एए पाउकरे बुद्धे, जेहिं होइ सिणायओ। सव्व कम्म विणिमुक्क, तं वयं बूम माहणं ।। एवं गुणसमाउत्ता, जे भवंति दिउ तमा । ते समत्था समुद्धतुं, परमप्पाणमेव च ॥ एवं तु संसए छिन्ने, विजयघोसे य माहणे । समुदाय तओ तं तु, जय घोसं महामुणि ॥ तु? य विजयघोसे, इणमुदाहु कयंजली। माहणत्तं जहाभूयं, सुठ्ठ में उवदंसियं ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र २५.३२-३७
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