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४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ "जो देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी तथा तिर्यच-सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता-पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
"जल में उत्पन्न हुआ कमल जैसे जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार के काम-भोगों से अलिप्त रहता है, उनमें संसक्त नहीं होता, उनसे सर्वथा पृथक् रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
___“जो अलोलुप है-लोलुपतारहित है, भिक्षोपजीवी है-भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करता है, गृहत्यागी है, अकिञ्चन है-परिग्रहरहित है जो गृहस्थों में असंसक्त है-आसक्ति वजित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
"जो जातिगत एवं बन्धु-बान्धवगत-परिवारगत पूर्व-संयोगों का-पूर्व-सम्बन्धों का परित्याग कर देता है, जो भोगों में सज्ज-संगयुक्त-आसक्तियुक्त नहीं होता, हम उसे ब्राह्मण कहते हैं।
___"मुण्डित होने से-केवल मस्तक मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं हो जाता, केवल ओङ्कार का उच्चारण करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता, अरण्य में-वन में वास करने मात्र से कोई मुनि नहीं हो जाता और न वल्कल-वृक्षों की छाल का चीर-वस्त्र धारण करने मात्र से कोई तापस हो जाता है।'
१. तसंपाणं वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेणं, नं वयं बूम माहणं ।। कोहा वा जई वा हासा, लोहा वा जई वाभया। मुसं न यवई जो उ, तं वयं बूम माहणं । चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जई वा बहं। न गिण्हइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं॥ दिव्यमाणुस्सतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा कायक्केणं, तं वयं बूम माहणं ॥ जहा पांमं जले जायं, नोवलिप्पइव रिणा। एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ॥ अलोलुयं मुहाजीवि, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेहिं, तं वयं बूम माहणं । जहिता पुव्वसंजोगं, नाइसंगे य बंधवे । जो न सज्जइ भोगेस्तु, तं वयं बूम माहणं ।। न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र २५.२३-३०.
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