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________________ तत्त्व : आचार: कथानुयोग] तत्त्व "जिसे कुशल---योग्य, पुण्यात्मा पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अपने आभ्यन्तर तेज द्वारा अग्नि की ज्यों अर्चनीय है, हम उसे ब्राह्मण कहते हैं। ... "जो अपने स्वजनों में-पारिवारिकों में आसक्त नहीं होता, प्रवजित होने में अधिक सोच-विचार नहीं करता—जो सहज ही वैराग्योन्मुख होता है, जो आर्य-वचनों में---उत्तम पुरुषों के वचनों में-उपदेश में सदा रमण करता है-तन्मय रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। "जैसे अग्नि में तपाकर, गलाकर शुद्ध किया हुआ सोना मलरहित--उज्ज्वलदेदीप्यमान होता है, उसी प्रकार जो राग, द्वेष तथा भय आदि के मल से-कालिमा अतीत है, उज्ज्वल.एवं देदीप्यमान है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। "जो तप-निरत है, देह के सतत उपचय एवं संवर्धन में यत्नशील न रहं सांधना में अनवरत निरत रहने के कारण जो शरीर से कृश है-दुबला-पतला है, दमयुक्त है-संयम द्वारा इन्द्रिय-दमन करता है, जिसकी देह में रुधिर और मांस कम रह गया है जो देह से पीवर तथा मांसल नहीं हैं, जो उत्तम व्रतों का पालन करता है, जो निर्वाणोन्मुख हैमोक्षोद्यत है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' "जो त्रस-जंगम-चलने-फिरनेवाले अथवा जिन्हें त्रस्त होते अनुभव किया जा सके, स्थावर-स्थिर नहीं चलने-फिरने वाले—जिनके त्रास या संवेदन का स्थूल दृष्टि से अनुभव न किया जा सके--इन दोनों प्रकार के प्राणियों को उनकी सत्ता एवं स्वरूप को यथावत् रूप में जानकर मन, वचन तथा शरीर द्वारा न हिंसा करता है, न औरों से हिंसा करवाता है और न हिंसा का अनुमोदन ही करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। "जो क्रोधाविष्ट हो, लोभाविष्ट हो, भयाविष्ट हो कभी असत्य भाषण नहीं करता, हास-परिहास में भी हँसी-मजाक में भी जो कभी झूठ नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। "जो सचित्त-सप्राण, अचित्त-अप्राण-जड़, अल्प या अधिक अदत्त नहीं दी हुई वस्तु कदापि नहीं लेता-चोरी नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। १. जो लोए बंभणो वुत्तो, अग्गी व महिओ जहा । सया कुसल-संदिठें, तं वयं बूम माहणं ।। जो न सज्जइ आगंतुं पव्वयंतो न सोयई। रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ।। जायरूवं जहा मढें, निद्धतमलपावगं । रागद्दोसभयाईयं, तं वयं बूम . माहणं ॥ तवस्सियं किसं दंतं, अवचिय-मस-सोणियं। . सुव्वयं पत्ननिव्वाणं, तं वयं बूम माणं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २५.१६-२२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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