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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
निष्पादक आदि के अर्थ में भी विकसित हुआ । षोडश संस्कारों के संपादयिता के रूप में भी ब्राह्मण का महत्त्व रहा । यों ब्रह्मपरक तथा लोकपरक—दोनों विधाओं के साथ इस शब्द की संगति जुड़ी, आगे चलते-चलते ब्राह्मण वर्ग ब्रह्मपरकता के स्थान पर अधिकाधिक लोकपरक होता गया, जिसका फल निष्पत्ति समृद्धि, वैभव एवं लौकिक सुखों के अधिकाधिक संवर्धन के रूप में हुई । उसकी संप्रतिष्ठा कर्मजा के बदले जन्मजा अधिक हो गई ।
पठन पाठन, चिन्तन, मनन में लीन रहने वाले इस वर्ग ने विद्या के क्षेत्र में बड़ा विकास किया । यही कारण है, भारतीय वाङ्मय में निःसन्देह ब्राह्मण की बहुत बड़ी देन है । भारतीय जीवन का प्रज्ञा-पक्ष, संस्कार-पक्ष ब्राह्मण से अत्यधिक संपृक्त एवं अनुशासित रहा।
श्रमण-परंपरा का उत्स संयम और साधना से जुड़ा था। बाह्य कर्मकाण्ड वहाँ समाहत नहीं थे । वहाँ उत्कर्ष का आधार जन्म नहीं, कर्म था । अनेक बातों में समान होते हुए सी. कतिपय ऐसे विषय थे, जिनमें वह वैदिक परम्परा से असमान रही। ब्राह्मण के साथ जुड़ासमग्र आशय श्रमण परम्परा को स्वीकृत नहीं था, किन्तु, भारतीय जीवन की समग्रता में परि व्याप्त ब्राह्मण शब्द को अस्वीकार करना भी श्रमण-परंपरा के लिए संभव नहीं था । उसने ब्राह्मण शब्द को स्वीकारा, किन्तु अपने तत्व-दर्शन के परिपार्श्व में एक विशेष भूमिका के साथ, जिसका तात्पर्य एक ऐसे प्रकृष्ट पुरुष से था, जिसका जीवन वासना, विलास, राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ एवं मोह से अछूता हो ।
जैन तथा बौद्ध - श्रमण-परंपरा की दोनों धाराओं में ब्राह्मण का विश्लेषण इसी तात्त्विक चिन्तन एवं अभिप्राय के साथ हुआ है । यत्र तत्र शब्दावली में किञ्चिद भिन्नता के बावजूद दोनों के स्वर में अद्भुत सामरस्य है ।
उत्तराध्ययन सूत्र का जैन आगम - साहित्य में बड़ा महत्त्व है । उसके पचीसवें अध्ययन में जयघोष नामक मुनि का वर्णन है । जयघोष-मुनि का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था । वे परम यशस्वी थे । उनका मन संसार में नहीं रमा । उन्होंने श्रमण जीवन स्वीकार किया ।
एक बार वे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाराणसी पहुँचे । नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान था, वहाँ टिके | तब वाराणसी में विजयघोष नामक वेदवित् ब्राह्मण निवास
करता था ।
" जयघोष मुनि के एक मास की तपस्या ( अनशन ) का पारणा था । वे भिक्षा हेतु वहाँ गये, जहाँ ब्राह्मण विजयघोष यज्ञ कर रहा था। मुनि को भिक्षार्थ आया देख विजयघोष प्रतिषेध करता हुआ बोला- “भिक्षु ! तुम और कहीं जाओ। मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा । यह भोजन उन ब्राह्मणों को देय हैं- देने योग्य है, जो वेदवेत्ता हो, याज्ञिक हों, ज्योतिष आदि वेदांगों के जानकार हों, जो अपना तथा औरों का उद्धार करने में समर्थ हों, उनको देने से ही मेरी सब कमनाएँ पूर्ण होंगी ।"
प्रतिषिद्ध किये जाने पर भी मुनि ने कोई बुरा नहीं माना, रुष्ट नहीं हुए । उन्होंने कहा – “विजयघोष ! तुम नहीं जानते, तत्त्वत: ब्राह्मण कौन ? उसका यथार्थ स्व
रूप क्या 1
विजयघोष तथा उसके साथियों द्वारा जिज्ञासित कियेजाने पर मुनि ने ब्राह्मण के स्वरूप का विश्लेषण किया, जो इस प्रकार है
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