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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
तत्त्व
शारीरिक व्यापारों से सर्वथा अतीत हो जाता है। वह निर्मल, शान्त, निष्कलंक, निरामय, निष्क्रिय और निर्विकल्प बनकर सम्पूर्णत: आनन्दस्वरूप मोक्ष-पद को अधिगत कर लेता है । यह वह स्थिति है, जिसे अभिलक्षित कर ध्याता ध्यान में अभिरत होता है । यह उत्कर्ष की अन्तिम मंजिल है, जिसे स्वायत्त करने का ध्याता सदैव यत्न करता है । "
भगवान् तथागत श्रावस्ती के अन्तर्गत जैतवन नामक उद्यान में विराजित थे । उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा - " - "भिक्षुओ ! एक भिक्षु कामों का सांसारिक विषयों की कामनाओं का परित्याग कर, पापों का परित्याग कर स-वितर्क, स-विचार एवं विवेक से उद्भूत प्रीतियुक्त, सुख-युक्त ध्यान को प्राप्त करता है । यह प्रथम ध्यान है ।
"वितर्क और विचार के परिशान्त हो जाने पर आन्तरिक प्रसाद — उल्लास एवं चैतसिक एकाग्रता से युक्त, किन्तु, वितर्क और विचार से परिवर्जित, समाधि-जनित प्रीति-सुखान्वित ध्यान को प्राप्त करता है । यह दूसरा ध्यान है ।
"वह प्रीति एवं विराग के प्रति उपेक्षाशील हो जाता है । वह स्मृति एवं संप्रजन्य से समायुक्त होता हुआ विहरणशील होता है । वह आर्यों द्वारा — उत्तम ज्ञानी पुरुषों द्वारा प्रतिपादित समग्र सुखों का अनुभव करता है । वह उपेक्षा लिये, औदासीन्य लिये स्मृतिमय, सुख-संचारमय ध्यान को प्राप्त करता है । वह तीसरा ध्यान है ।
"वह सुख-दुःख का त्याग कर चुका होता है, अतएव सौमनस्यवस्था तथा दौर्मनस्य - दूषित, अधम मनोवस्था का विलय हो जाता है । सुखमय, स्मृति एवं उपेक्षा से परिशुद्ध ध्यान को प्राप्त करता है । यह चौथा ध्यान है । “भिक्षुओ ! जैसे गंगा नदी पूर्व दिशा की ओर बहती है, उसी प्रकार भिक्षु इन चार ध्यानों से अनुभावित होता है, इनका संवर्धन करता है, निर्वाण की दिशा में आगे बढ़ता है । भिक्षुओ ! यही चार ध्यान हैं।"
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ब्राह्मण कौन ?
भारतीय वाङ्मय में ब्राह्मण शब्द का अपना असाधारण महत्त्व है । वैदिक परम्परा में तो यह इतना परिव्याप्त है कि तदनुसृत चिन्तनधारा के परिपार्श्व में पल्लवित पुष्पित संस्कृति की संज्ञा ही ब्राह्मण-संस्कृति हो जाती है । एक बिशेष बात और है, याज्ञिक विधाओं का मर्म स्वायत्त करने हेतु वेद मंत्रों को यथावत् रूप में समझने के लिए जिन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ, वे ग्रन्थ ब्राह्मण कहे जाते हैं । प्रत्येक वेद तथा उसकी भिन्न-भिन्न शाखाओं के पृथक्-पृथक् ब्राह्मण होते हैं ।
१. स्थानांग सूत्र ४.६०-७२, तत्त्वार्थ सूत्र
२. संयुक्त्त निकाय, दूसरा भाग, पठम सुद्धिय सुत्त ५.१.१.१
ब्राह्मण शब्द के मूल में ब्रह्म शब्द है । "ब्रह्म वेदं बुद्ध चेतभ्यं वा वेत्ति अधीते वा इति ब्राह्मण" इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्राह्मण वह है, जो वेदाध्यायी हो या जो शुद्ध चैतन्य या ब्रह्म का वेत्ता हो । आगे उत्तरोत्तर इस शब्द का अर्थ-विस्तार होता गया । जहाँ यह शब्द ब्रह्म-ज्ञान के उच्च आदर्श से जुड़ा, वहाँ पूर्वमीमांसानुरूप कर्म-काण्ड के वेत्ता,
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- सुन्दर, सुष्ठु मनोअत: वह न दुःख-न
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