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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, अन्तराम, आयुष्य-इन कर्मों से प्रसूत फल प्राणी किस प्रकार भोगता है, वह किन-किन परिस्थितियों में से निकलता है, आत्म विकासोन्मुख आरोहक्रम के अन्तर्गत इन कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद किस प्रकार होता जाता है, यह चिन्तनक्रम इस ध्यान के अन्तर्गत है। संस्थान-विचय
संस्थान का अर्थ आकार या लोक है। ऊर्ध्व-लोक, मध्य-लोक तथा अधोलोक के रूप में वह तीन भागों में बँटा हुआ है। ऊर्ध्व-लोक में देवों का निवास है, मध्य-लोक में मनुष्यों एवं तियंचों का निवास है तथा अधोलोक में नारकीय जीवों का निवास है। ऊर्ध्व-लोक, मध्य-लोक तथा अधो लोक तीनों की समष्टि लोक शब्द में समाहित है। इस प्रकार के लोक का स्वरूप जहाँ चिन्तन का आलम्बन बनता है, अथवा एतन्मूलक लोक के स्वरूप का जहाँ चिन्तन क्रम रहता है, वह संस्थान-विचय धर्म-ध्यान कहा जाता है। शुक्ल-ध्यान के चार भैद
शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं.-१. पृथक्त्व-वितर्क सविचार, २. एकत्व-वितर्कअविचार, ३. सूक्ष्म क्रिय-अप्रतिपाति तथा ४. समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति (व्युपरतक्रियानिवृत्ति)। पृथकत्व-वितर्क-सविचार
___इस ध्यान में किसी बाहरी पदार्थ का आलम्बन नहीं रहता। इसमें श्रुत या ज्ञान का आलम्बन रहता है। श्रुत का आलम्बन लिये जीव, अजीव आदि पदार्थों का द्रव्याथिक, पर्यायाथिक आदि अपेक्षाओं से भेद-प्रधान चिन्तन करना तथा चिन्तनक्रम का एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर तथा योग से दूसरे योग पर संचरणशील रहना पृथक्त्व-वितर्क-सविचार शुक्ल ध्यान के अन्तर्गत आता है। एकत्व-वितर्क-अविचार पहले भेद से यह
न के आधार पर विविध रूपात्मक पदार्थों पर एकमात्र अभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है। चिन्तनक्रम का संचरण प्रथम भेद की तरह एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर एक शब्द से दूसरे शब्द पर एक योग से दूसरे योग पर गति. शील नहीं होता, वरन् उसमें ध्याता किसी एक ही पर्यायरूप अर्थ का अवलम्बन कर मन, वचन तथा शरीर के किसी एक ही योग पर सुस्थित रहकर एकत्व-प्रधान-अभेद-प्रधान चिन्तन करता है। सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति
केवली--सर्वज्ञ अपने आयुष्य के अन्तिम समय में योग-निरोध का क्रम शुरू करते हैं, तब वे मात्र सूक्ष्म शरीर-योग का आलम्बन लिये होते हैं। उसके अतिरिक्त उनके सब योग अवरुद्ध हो जाते हैं। उनमें केवल दवास-प्रश्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही बची रहती है। वैसी स्थिति प्राप्त कर लेने पर ध्याता के ध्यान-च्युत होने की कोई आशंका नहीं रहती। उस अवस्था में संचरणशील चिन्तन सूक्ष्म क्रिय-अप्रतिपाति शुक्ल-ध्यान है। समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति (यूपरतक्रियानिवृत्ति)
यह ध्यान साधक की उस उच्चतम स्थिति से सम्बद्ध है, जहाँ उसके सभी योगमानसिक, वाचिक एवं कायिक क्रियाएँ निरुद्ध हो जाती हैं। आत्मप्रदेशों में सब प्रकार के परिकम्पन, परिस्पन्दन का अवरोध हो जाता है। तब सर्वथा आलम्बन शून्य आधारशून्य ध्यान सघता है । उस समय ध्याता सब प्रकार के स्थूल एवं सूक्ष्म मानसिक, वाचिक तथा
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