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________________ तत्त्वं : आचारे कथानुयोग ] तत्व अव्यापाद-- व्यापाद या प्रतिहिंसा से विरत होना, हिंसा का प्रतिकार हिंसा द्वारा न करता, सम्यक दृष्टि- शुद्ध दृष्टि, सत्यपरक दृष्टि, सत्य में आस्था - इन्हें कुशल कहा जाता है । अलोभ लोभ का वर्जन. लालच न करना, अद्वेष द्वेष का वर्जन, द्वेष न करना तथा अमोह — मोह का वर्जन, मोह न करना - ये कुशल- मूल हैं । : - ध्यान : प्रालम्बन एवं विधाएं.... साधना में ध्यान का अत्यधिक महत्त्व है । ध्यान आलम्बन- विशेष से प्रारम्भ होकर अन्ततः निरालम्बन या आलम्बन-शून्य हो जाता है, जो आभ्यन्तर अनुभूति की परमोन्नत अवस्था है, जहाँ आत्मसमाधि या शाश्वत शान्ति की अनुभूति होती है । सभी धर्म-परम्पराओं में साधना के अन्तर्गत ध्यान का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । अष्टांग योग में यह उत्तरोत्तर विकासोन्मुख योंगक्रम को सातवाँ अंग है, जो आठवें अंग समाधि की पृष्ठभूमि प्रदान करता है । 'जैन तथा बौद्ध परम्परा में ध्यान पर बहुत जोर दिया गया है, बहुत लिखा गया है । ध्यान पर स्वतन्त्र पुस्तकें तक निर्मित हुई हैं । अघीति और अनुभूति के अनुसार दोनों की अपनी सूक्ष्मताएँ हैं, जो गहन अध्ययन का विषय है । । भगवान् महावीर और बुद्ध दोनों की ही ध्यान में बहुत रुचि और आस्था थी । वे अनेक प्रकार से ध्यान करते थे। दोनों परम्पराओं की ध्यान - विधाएँ भिन्न होते हुए भी, कतिपय ऐसी अपेक्षाएँ हैं, जिनसे परस्पर समन्वित भी कही जा सकती हैं । ध्यान चार प्रकार के बतलाये गये हैं- १. आर्त-ध्यान, २ रौद्र ध्यान, ३. धर्मध्यान तथा ४. शुक्ल ध्यान । आर्त एवं रौद्र-ध्यान अप्रशस्त हैं; अतः वे अनुपयोगी एवं त्याज्य हैं । धर्म एवं शुक्ल ध्यान प्रशस्त्र हैं, उपादेय हैं । धर्म-ध्यान के चार प्रकार धर्म-ध्यान चार प्रकार का है - १. आज्ञा-विचय, २ उपाय- विचय, ३. विपाक विचय तथा संस्थान -विचय | आज्ञा-विचय ४३. आप्त पुरुष की वाणी आज्ञा कही जाती है। आप्त पुरुष वह है, जो राग, द्वेष आदि से अतीत हो, सर्वज्ञ हो । ऐसे आप्त या सर्वज्ञ पुरुष की आज्ञा जहाँ विचय-चिन्तन, विमर्शण का विषय हो, वह आज्ञा-विचय धर्म- ध्यान कहा जाता है । वहाँ वीतराग की आज्ञा या देशना के अनुरूप वस्तु तत्त्व के चिन्तन-पर्यालोचन में मन को जोड़ना अपेक्षित है। अपाय- विचय अपाय का आशय दुःख है । राग द्वेष, काम, भोग आदि विषय कषायों से कर्म संचित होते हैं । राग, द्वेष, काम, भोग आदि विषय कषायों का अपचय – ध्वस, कार्मिक सम्बन्ध का विच्छेद, तत्परिणामस्वरूप आत्मसमाधि - शान्ति की अनुभूति — इन्हें समद्दिष्ट कर प्रवृत्त चिन्तनात्मक उपक्रम अपाय-विचय धर्म- ध्यान है । विपाक-विचय विपाक का तात्पर्य फल है । इस ध्यान में चिन्तनक्रम कर्म फल पर टिका होता है । C १. मज्झिमनिकाय, सम्मादिट्ठिसुत्तन्त १.१० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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