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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] एक समय का प्रसंग है, भगवान् तथागत राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर विहरणशील थे । आयुष्मान् आनन्द, जहाँ भगवान् थे, वहाँ आये । भगवान् के समीप आकर उन्होंने उनको नमस्कार किया तथा वे एक ओर बैठ गये । भगवान् से उन्होंने निवेदन किया- “भन्ते ! पूरण काश्यप ने छः अभिजातियाँ प्रज्ञप्त की हैं। उन्होंने कृष्ण- अभिजाति, नील-अभिजाति, लोहित - लाल - अभिजाति, हरिद्रा - हलदी वर्ण की अभिजाति, शुक्ल अभिजाति एवं परम् शुक्ल अभिजात का प्रज्ञापन किया है ।" तरव भगवान् ने इस प्रसंग पर प्रस्तुत विषय का विशद विवेचन किया।' छः प्रकार की अभिजातियाँ हैं— संस्कार - विशेषयुक्त जन्मानुक्रम हैं— जन्मजात विभिन्न संस्कार लिये प्राणिवर्ग है । कोई-कोई कृष्णाभिजातिक - कृष्ण - काले या निम्न कुल में उत्पन्न होकर कृष्ण - काले अनुज्ज्वल, अशुभ, बुरे या पापात्मक घर्मो का आचरण करता है । कोई-कोई कृष्णाभिजातिक— निम्नकुल में उत्पन्न होकर शुक्ल - उजले, पवित्र, शुभ, अच्छे या पुण्यात्मक धर्मों का आचरण करता है । कोई-कोई कृष्णाभिजातिक— निम्नकुल में उत्पन्न होकर अकृष्ण- अशुक्ल —न कृष्ण, न शुक्ल कृष्णत्व या पुण्य, पाप से अतीत निर्वाण को उत्पन्न करता है । कोई-कोई शुक्लाभिजातिक— शुक्ल — उज्ज्वल या उच्च कुल में उत्पन्न होकर शुक्ल – उजले, पवित्र, शुभ, अच्छे या पुण्यात्मक धर्मों का आचरण करता है । कोईकोई शुक्लाभिजातक - उच्च कुल में उत्पन्न होकर कृष्ण - काले, अनुज्ज्वल, अशुभ, बुरे या पापात्मक धर्मों का आचरण करता है । कोई-कोई शुक्लाभिजातिक— उच्च कुल में उत्पन्न होकर अकृष्ण – अशुक्ल --न कृष्ण, न शुक्ल - कृष्णत्व-शुक्लत्व या पुण्य-पाप से अतीत निर्वाण को उत्पन्न करते हैं । " पण्डित - ज्ञानी पुरुष कृष्ण वर्मों-पाप-कृत्यों का विपरिहार कर - परित्याग कर शुक्ल - घर्मो - पुण्य कृत्यों का आचरण करे। वह सागार से अनागार बन - गृहत्यागी बन विवेक का सेवन करे, एकान्त का सेवन करे | 3 -गृहस्थ से ४१ शुभ-अशुभ : कुशल श्रकुशल असत् का वर्जन, सत् का स्वीकरण सात्त्विक किंवा धार्मिक जीवन की आधार शिला है। यह श्रेयस् का मार्ग है । इस मार्ग पर गतिशील पुरुष ज्यों ज्यों आगे बढ़ता है, वह शान्ति के साम्राज्य में संप्रविष्ट होता जाता है, जो प्रेयस् का सर्वथा परिपंथी नहीं है, वरन् सन्तुलित, सुसंयमित प्रेयस् का परिपोषक है, जिसके सन्तुलन, सुसंयमन के मूल में श्रेयस् की सहचारिता है । केवल प्रेयस्, नितान्त प्रेयस् व्यक्ति को संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रतिबद्ध कर देता है, जहाँ सत्, असत् का विवेक विलुप्त हो जाता है। शुभ, अशुभ, पुण्य, पाप, कुशल, अकुशल की शृंखला यहीं से आगे बढ़ती है । १. अंगुत्तरनिकाय नि० ६, पृष्ठ ८६-८ २. दीघ निकाय ३.१० ३. धम्मपद ६.१२ हिंसा असत्य, कामाचार, संग्रह, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि में प्रवर्तन अशुभ है । उससे स्थूल किन्तु परिणाम - विरस प्रेयस् मले ही सघ जाए, श्रेयस् तथा परिणाम - सरस प्रेयस् Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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