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इन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं । '
दार्शनिक इस प्राणात्मवाद से भी संतुष्ट नहीं हुए।
मनोमय आत्माः - आत्मा संबंधी विचारणा और उसे प्राप्त करने में ऋषि निरंतर प्रयत्नशील थे। उन्हें ऐसा आभास हुआ कि मन के अभाव में प्राण और इन्द्रियाँ सब व्यर्थ हैं। मन का संपर्क होने पर ही इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण कर सकती हैं। अगर मन अनुपस्थित हो तो इन्द्रियों की उपस्थिति सार्थक नहीं है। तब प्राणमय आत्मा के स्थान पर मनोमय आत्मा की सत्ता स्वीकार की गयी। 2
मन की सत्ता की उत्कृष्टता को स्वीकारते हुए उसे परम ब्रह्मसम्राट् तक कह दिया। " छान्दोग्य उपनिषद् में भी उसे ब्रह्म कहा है। "
प्रज्ञा विज्ञानात्माः - कौषीतकी उपनिषद् में प्राण को प्रज्ञा और प्रज्ञा को प्राण कहा है।
इसी में आगे प्रज्ञा का महत्व स्वीकार करते हुए कहा गया है कि प्रज्ञा के अभाव में इन्द्रियाँ और मन निरर्थक हैं। इन्द्रियों और मन की अपेक्षा प्रज्ञा का महत्व अधिक है । "
विज्ञानात्मा को मनोमय आत्मा की अंतरात्मा के रूप में बताया है। ' ऐतरेय उपनिषद् में प्रज्ञान ब्रह्म के पर्यायवाची शब्दों में मन भी है। " प्रज्ञा और प्रज्ञान' एक ही हैं। यहाँ प्रज्ञान का पर्याय विज्ञान भी बताया है । "
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चैतन्यात्मा:: -आत्मा के संबंध में निरंतर वैचारिक चिंतन का परिणाम आगे जाकर यह निकला कि केनोपनिषद् ने स्पष्ट कह दिया कि -अन्नमय
1. बृहदारण्यक उप. 1.5.21
2. तैतिरीय उपनि. 2.3
3. बृहदारण्यकोपनिषद् 4.1.6
4. छान्दोग्योप. 7.3.1
5. कौषीतकी उप. 3.2, 3.3.3.3.34.
6. कौषितकी उप. 3.6.7
7. तैतिरीय उपनिषद् 2.4
8. ऐतरेय उपनि. 3.2
9. ऐतरेय उप 3.3 10. ऐतरेय उप. 3.2
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