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________________ उपनिषद् और आत्म स्वरूप को विभिन्नताः-आत्म स्वरूप के निर्धारण में उपनिषद् निरंतर प्रगति करता प्रतीत होता है, क्योंकि विभिन्न उपनिषदों में आत्मा के स्वरूप की भिन्नता स्पष्ट परिलक्षित होती है। देहात्मवादः-उपनिषद् के पुरस्कर्ता ऋषियों के मन में जब यह चिंतन चला कि बाह्य विश्व को गौण कर जिस चैतन्य की अनुभूति होती है, वह क्या है? इस संबंध में उपनिषद् में एक आख्यान आता है कि असुरों में वैरोचन और देवों में इन्द्र आत्मविद्या की शिक्षा लेने प्रजापति के पास गये। तब प्रजापति ने बर्तन में पानी डालकर उसमें उनका प्रतिबिम्ब दिखाकर कहा-यही आत्मा है। इन्द्र तो देहात्म स्वरूप से संतुष्ट नहीं हुए पर वैरोचन संतुष्ट हो गये। जैनागमों में द्वितीय अंग श्री सुयगड़ांग में इसी को “तज्जीव तच्छरीरवाद' कहा गया है। भगवान महावीर के तीसरे गणधर वायुभूति के मन में भी यही शंका थी कि “जीव और शरीर भिन्न हैं या एक ही।' राजा प्रदेशी भी आत्मा को शरीर की तरह इन्द्रियग्राह्य मानता था और इसी कारण उसका आत्मशोधन का प्रयास निष्फल रहा।' प्राणात्मवादः-इन्द्र को इस देहात्मवाद के स्वरूप से संतुष्टि नहीं हुई। इन्द्र की तरह औरों के मस्तिष्क में भी यह प्रश्न उभरा होगा कि अगर शरीर ही आत्मा है तो मृत्यु के समय भी शरीर तो मौजूद है फिर भी शरीर की क्रियाएँ अवरुद्ध क्यों हो जाती हैं। निद्रावस्था में भी श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया प्रारंभ रहती है, यह क्या है? तब उन्होंने अनुभव के आधार पर प्राण सत्ता को ही समस्त प्रवृत्ति का कारण माना।' छान्दोग्य उपनिषद् में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि "विश्व में सब कुछ प्राण है।" इन्द्रियाँ और प्राण का तादात्म्य भी कर दिया गया। 1. छान्दोग्योपनिषद् 8.84 2. सुयगडांग 6.48 3. गणधरवाद 1649 4. राज प्रश्नीय 244-266 5. तैतिरीय उपनि. 2.2.3 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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