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आत्मा रथ के समान है, उसे चलाने वाला रथी ही आत्मा है।' यही दृष्टा, श्रोता, मनन करने वाला और विज्ञाता है। इस चिदात्मा को अजर, अमर, अक्षर, अव्यय, अज, नित्य, ध्रुव, शाश्वत, और अनंत माना गया है।' इस प्रकार, सतत चिंतन से शरीर और आत्मा की भिन्नता सिद्ध की गयी।
न्याय-वैशेषिक में आत्मा :-न्याय दर्शन ने आत्मा की व्याख्या भिन्न तरीके से की है। "ज्ञान, इच्छा, आदि गुणों का आधार आत्मा है।" द्वितीय परिभाषा है-"प्रतिसंधान, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान करने वाला तत्व ही आत्मा है।" ___न्याय दर्शन आत्मा को शरीरादि से भिन्न एक स्वतंत्र द्रव्य मानता है, परंतु उसे जडवत् मानता है। चैतन्य, जो कि आत्मा का स्वाभाविक गुण है, न्याय दर्शन के अनुसार वह आगंतुक गुण है।' न्याय दर्शन में आत्मा को इस चैतन्य गुण की उत्पत्ति का आधारमात्र बताया गया है।
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयल, ये आत्मा के छह विशेष गुण माने गये हैं। मुक्ति में शरीरादि का अभाव है, अतः वहाँ मुक्तात्मा में आगंतुक चैतन्यगुण का भी अभाव है।''
वैशेषिक सूत्र में आत्मा का अस्तित्व अनुमान प्रमाण से सिद्ध किया गया है। प्राणापान, निमेषोन्मेष, जीवन, इन्द्रियांतर संचार, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, संकल्प आदि को आत्मा के लिंग बताते हुए इन्हीं से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया गया है। विशेष विवेचन के लिए एन.के. देवराज द्वारा लिखित भारतीय दर्शन पृ. 301-8.1 देखना चाहिए।
इसी प्रकार न्याय सूत्रकार ने भी इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और 1. केनोपनिषद् 1.2 2. बृहदारण्य. 3.7.22. 3. कठो. 3.2 4. त.सं. पृ. 12. 5. न्यायवा. 1.1.10 पृ. 64
प्रशस्तपादभाष्य पृ. 49.50 7. भारतीय दर्शन-डॉ. राधाकृष्णन् भाग 2 पृ. 148, 149 8. तर्कभाष्य-केशवभिश्र पृ. 148. 9. तर्क भाष्य केशिव मिश्र पृ. 190 0. न्यायसूत्र 1.7.22. 11. वै.सू. 3.2.4-13
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