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कथन करता है और मात्र पर्यायार्थिक नय में भी संसार मात्र संभव नहीं, क्योंकि यह अशाश्वत धर्मों की अपेक्षा कथन करता है।'
सुख-दुःख की कल्पना नित्यानित्य पक्ष में ही संभव है।'
पुद्गलों के योग होने से कर्मबंध होता है और कषाय के कारण बंधे हुए कर्मों की स्थिति का निर्माण होता है। एकांत रूप से क्षणिक या शाश्वत बंध एवं स्थिति का निर्माण असंभव है।'
बंध और स्थिति के अभाव में न संसार में भय की प्रचुरता होगी और न मुक्ति की आकांक्षा।'
आध्यात्मिक दृष्टि से भी निश्चयनय और व्यवहारनय की ही मान्यता है।'
कुंदकुंदाचार्य ने निश्चयनय को भूतार्थ अर्थात् वस्तु के शुद्ध स्वरूप का ग्राहक और व्यवहारनय को अभूतार्थ अर्थात् वस्तु के अशुद्धस्वरूप का विवेचक कहा है।
षड्द्रव्यों का विभाजन:-जैनदर्शन ने द्रव्यों की संख्या छः स्वीकार की है। उन छ: द्रव्यों के विभिन्न विभाजन है, वे यहाँ (अपेक्षा से ) प्रस्तुत हैं।
चेतन-अचेतन की अपेक्षाः-द्रव्य दो हैं जीव और अजीव। चेतना और उपयोग जीव के लक्षण हैं इनके विपरीत लक्षणों वाला अजीव है।'
मूर्त-अमूर्त की अपेक्षाः-आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं, पुद्गल द्रव्य मूर्त है।
क्रियावान् और भाववान् की अपेक्षाः-धर्म, अधर्म, काल और आकाश निष्क्रिय हैं, पुद्गल और जीव सक्रिय है। यह वात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है।'
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1. म.त. 1.17. 2. स.त. 1.18 3. कम्मं जोगानिमित्त...बंधट्टिइकारणंणत्थि म.त. 1.19 4. बंधम्मि अपूरते...णस्थि मोक्खोय। स.त. 1.20 5. नयमार गा. 183 6. ववहारो मुदत्थो...हवदि जीवो स.मा. 11. 7. प्रवचनमार 127. पं.का. 124. 8. पं.का. 97 9. अधिकतानां धर्माधर्माकागाना...सक्रियत्वमर्यादापन्नम् स.सि. 5.7.273.
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