SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं जाती तब तक माला नहीं बनती।' वस्तु जव अनंतधर्मात्मक है तब स्वाभाविक रूप से उनके धर्म को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनंत है और उन अनंत अभिप्रायों के कारण नय भी अनंत है, फिर भी इन्हें मुख्यरूप से दो भागों में बाँटा गया है। वस्तु स्वरूपतः अभेद है और अपने में मौलिक है, परंतु गुण और पर्याय के धर्मों द्वारा अनेक है। अभेदग्राही दृष्टि द्रव्यार्थिक नय और भेदग्राही दृष्टि पर्यायार्थिक नय कहलाती है।' स्वामी कार्तिकेय ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है:-युक्ति के बल से जो पर्यायों को कहता है वह पर्यायार्थिक' और जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को कहता है वह द्रव्यार्थिक नय है।' नयों की अपेक्षा से ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार निक्षेपों का विभाग इस प्रकार होता है-पर्यायार्थिक नय मात्र भावनिक्षेप को तथा द्रव्यार्थिक नय अवशिष्ट तीनों को ग्रहण करता है। दोनों नय मिलकर ही सत् के लक्षण ग्रहण करते हैं, क्योंकि सत् का लक्षण सामान्य और विशेष दोनों से मिलकर बनता है।' द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य पर्यायार्थिका की दृष्टि में अवस्तु है और पर्यायार्थिक नय का वक्तव्य दृव्यार्थिक की अपेक्षा अवस्तु है। क्योंकि द्रव्यार्थिक नय मात्र सामान्य को ही देखता है और पर्यायार्थिक नय मात्र विशेष को ही देखता है। अगर एक ही नय से वस्तुधर्मों को ग्रहण करें तो सद् में परिणमन संभव नहीं हैं क्योंकि यदि मात्र द्रव्यार्थिक नय को स्वीकार करें तब तो संसार में परिवर्तन संभव ही नहीं, क्योंकि यह नय मात्र शाश्वत की अपेक्षा 1. जहणेय लक्खणगुणा...विसेससण्णाओ। स.त. 1.22.25 2. जावइया वयणपट्टा...णयवाया। स.त. 3.47 3. दबछियवत्तत्वं...पज्जब्व वन्तवभग्गोय स.त. 1.29 4. का.प्रे. 10.270. 5. वही 10.269 6. स.सि. 1.24.116 7. एए पुण संगहओ...मूलणया स.त. 1.13 8. स.त. 1.11 56 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy