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________________ गौतम ऋषि के न्यायसूत्र की वैदिक वृत्ति में 'कर्म से उत्पन्न होने वाला फल उत्पत्ति से पूर्व सत् है अथवा असत्'? इस प्रश्न के उत्तर में "उत्पाद व्यय दर्शनात्" (4.1.49 न्या.) इस सूत्र की टीका में हूबहू जैनदर्शन के समान ही वस्तु की सदसदात्मकता प्रतिपादित की गयी है। भेद-अभेदः-वेदान्त दर्शन ने भी भेदाभेद को स्वीकार किया है। व्यास रचित ब्रह्मसूत्र पर भास्कराचार्य ने अपने भाष्य में "शब्दान्तराच्च" (2.1.18) सूत्र पर स्वीकार किया है कि वस्तु में अत्यंत भेद स्वीकार नहीं किया जा सकता। अद्वैतः- अभिन्नवाद में भी भेदाभेद की चर्चा उपलब्ध होती है। विद्यारण्य स्वामी कार्यकारण सिद्धांत पर चर्चा करते हुए अपने ग्रन्थ में लिखते हैं 'घड़ा मिट्टी से न तो एकांत रूप से भिन्न है और न अभिन्न'।' सामान्य विशेष:-कुमारिल भट्ट ने अपने ग्रन्थ में वस्तु के स्वरूप को स्पष्टतः सामान्य-विशेषात्मक स्वीकार किया है। यद्यपि भिन्न-भिन्न दर्शनों में उपरोक्त विरोधी युगलों का प्रतिपादन उपलब्ध होता है, परंतु जिस प्रकार का तर्कयुक्त और स्पष्ट प्रतिपादन जैन दर्शन में है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इतर दर्शनों में सप्रतिपक्ष वस्तु का विवेचन अपवाद रूप में ही उपलब्ध होता है। यद्यपि नय में वस्तु के एक ही अंश को ग्रहण किया जाता है, फिर भी अन्य सभी धर्मों की अपेक्षा रहती है। प्रमाण तत् और अतत् सभी, को जानता है। नय में केवल तत् की प्रतीति होती है।' सापेक्षता नय का प्राण है। जो पर पक्ष का निषेध करके अपने ही पक्ष में आग्रह रखते हैं, वे सारे मिथ्या हैं। जब वे परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यग् होते हैं, जैसे मणियाँ जब तक धागे में पिरोई 1. वैदिकी वृत्तिः उद्धृत वही 2. वही पृ. 251. 3. स घटो ना मृदो...मनविक्षणात्। वही 4. वही पृ. 251.52. 5. धर्मातरादान्योपेक्षा...तदन्यनिराकृतेश्च अष्ट. पृ. 290. 6. निरपेक्षा...तेर्थकृत्. आ.मी. 55 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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