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प्रवचन सार के अनुसार पुद्गल और जीव भाव वाले और क्रिया वाले होते हैं, क्योंकि परिणाम, संघात और भेद के द्वारा उत्पाद व्यय और धौव्य को प्राप्त करते हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल मात्र भाववान हैं, क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनमें उत्पाद, व्यय और धौव्य होता है। भाव का लक्षण परिणाम मात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पंदना'
एक और अनेक की अपेक्षाः-धर्म, अधर्म और आकाश-द्रव्य की अपेक्षा एक ही हैं, जीव और पुद्गल अनेक हैं।' वसुनन्दि ने जीव और पुद्गल की तरह व्यवहार काल को भी अनेकरूप माना है।'
परिणामी और नित्य की अपेक्षाः-स्वभाव तथा विभाव परिणामों से जीव तथा पुद्गल परिणामी हैं. शेष चार द्रव्य विभावव्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं।'
सप्रदेशी और अप्रदेशी की अपेक्षाः-लोक प्रमाण मात्र असंख्यप्रदेशयुक्त जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सप्रदेशी हैं, काल अप्रदेशी है, क्योंकि उसमें कायत्व नहीं है।
इन धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव को प्रदेशों के समूहयुक्त होने के कारण ही अस्तिकाय कहते हैं। काल में प्रदेशों का अभाव है, अतः नास्तिकाय है। इसे अप्रदेशी भी कहते हैं।
क्षेत्रवान् एवं अक्षेत्रवान् की अपेक्षाः-सभी द्रव्यों को अवकाश देने के कारण मात्र आकाश ही क्षेत्रवान् है, अन्य पाँचों अक्षेत्रवान् हैं।' ।
सर्वगत एवं असर्वगत की अपेक्षाः-लोक और अलोक में व्याप्त होने की अपेक्षा से आकाश को सर्वगत कहा जाता है। लोकाकाश में व्याप्त होने के कारण धर्म और अधर्म भी सर्वगत हैं। एक जीव की अपेक्षा से जीव असर्वगत है, परंतु लोकपूरण समुद्घात की अवस्था में एक जीव की अपेक्षा से सर्वगत 1. क्रियाभाववत्वेन...क्रियावंतश्च भवन्ति। प्र.सा.त.प्र. 129 2. धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च...मेकद्रव्यत्वमा रा.वा. 5.6.6.445 3. धम्माधम्मागासा....ववहारकालपुग्गलजीवा ह. अणेयरुवति वसु. श्रा. 30 4. बृ.द.स. अधिकार प्रथम की चूलिका द्वय 5. ब्र.द.स. अधिकार की चूलिका 1.2 6. पं. का.टी. 22 बृहद् द्र.स. 1 की चूलिका 1.2 7. बृद्र.स. अधिकार 1 की चूलिका 1.2
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