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________________ क्षणिकैकांत में “यह वही है" इस प्रकार का व्यवहार संभव नहीं रहेगा और तब कार्य का आरंभ भी संभव नहीं होगा। जब कार्य का आरंभ ही नहीं होगा तो उसका फल कैसे संभव है।' क्षणिक पक्ष में कार्यकारणभाव भी नहीं बन सकता, कार्य रूप संतान कारण से सर्वथा पृथक् है (बौद्ध प्रत्येक पदार्थ को संतान मानते हैं)। मात्र कार्य को असत् मान लें तो आकाशपुष्प की तरह उसकी उत्पत्ति ही नहीं है।' इन सभी एकांतवादों का खंडन करके जैन दर्शन वस्तु का स्वरूप विरोधी युगलों द्वारा प्रतिपादित करता है। उत्पाद क्या हैः-हमने द्रव्य को त्रिलक्षणात्मक सिद्ध किया; परंतु जिज्ञासा हो सकती है कि उत्पाद क्या है? किसका उत्पाद होता है? ग्रन्थकार यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि “अपनी-अपनी जाति को न छोड़ते हुए बाह्य और आंतरिक दोनों निमित्तों को पाकर चेतन और अचेतन द्रव्य का अन्य पर्याय में परिवर्तित होना उत्पाद है।' पूर्वकाल में असत् का उत्तरकाल में सत्तालाभ उत्पाद नहीं है, अपितु अननुभूत का उत्तरकाल में प्रादुर्भाव ही उत्पाद है।' विनाश क्या हैः-अपनी जाति का त्याग किये बिना पूर्व पर्याय का नाश होना विनाश या व्यय है, जैसे पिण्डरूप आकृति का नष्ट होना।' उत्पाद-व्यय की इस प्रवाह परम्परा में स्थायिता न तो नष्ट होती है और न उत्पन्न। द्रव्य की एक पर्याय का व्यय होता है और दूसरी पर्याय का उत्पाद, परंतु द्रव्य ध्रुव बना रहता है।' उत्पाद और व्यय युक्त पर्याय, गुण और धौव्य युक्त सत् (द्रव्य) का 1. क्षणिकैकांतपक्षेपि ..कुतः फलम् आ.मी. 3.41 2. न हेतृफलभावा...पृथक् आ.मी. 3.43 3. यद्यसत् सर्वथा...खपुणवत् आ.मी. 3.42 4. चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य...घटपर्यायवत् स.सि. 5.30 584 5. उत्पादो भूतभवनं. शास्त्रवार्ता. 7.12 6. तथा पूर्वभाव विगमनं व्ययः यथा घटौत्सत्तौ पिण्डाकृतेः स.सि. 5.30. 584. विनाशस्तद्विपर्ययः. शास्त्रवार्ता. 7.12 एवं त.वा. 5.30 7. प्र.सा. 103. 41 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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