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उत्पत्ति बताना व्यर्थ है, जबकि वे प्रकृति से ही उत्पत्ति बताते हैं।' सांख्य पुरुष और प्रकृति में अत्यंताभाव नहीं मानते तब, तो प्रकृति और पुरुष में भेद' व्यर्थ हो जायेगा।
चार्वाक प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव, दोनों को नहीं मानता। वह भूतों से सर्वथा नवीन उत्पत्ति और उनके वियोग को सर्वथा विनाश मानता है।
मीमांसक भी शब्द को सर्वथा नित्य मानते हैं। यदि शब्द में प्रागभाव को न मानकर नित्य माना जाये तो पुरुष के तालु आदि प्रयल को क्या माना जायेगा?
सांख्य के अनुसार पदार्थ एवं मीमांसक के अनुसार शब्द मात्र अभिव्यक्त होते हैं, उनकी उत्पत्ति नहीं होती, कारणों के द्वारा अविद्यमान वस्तु की उत्पत्ति होती है। किसी आवरण से ढकी हुई वस्तु के किसी अन्य कारण से प्रकट होने को अभिव्यक्ति कहते हैं, जैसे अंधेरे में कोई वस्तु है पर दिखाई नहीं दे रही है, वही दीपक के प्रकाश से दिखने लगती है, यही अभिव्यक्ति है। परंतु प्रागभाव का निराकरण करने के कारण घट आदि कार्यद्रव्य अनादि हो जायेंगे और प्रध्वंसाभाव को न मानने के कारण कार्यद्रव्य अनंत हो जायेंगे।'
धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने पर “यह धर्मी है, ये इस धर्मी के धर्म हैं और यह धर्म और धर्मी में संबंध कराने वाला समवाय है" इस प्रकार तीन बातों का अलग-अलग ज्ञान प्राप्त नहीं होता। यदि कहो कि समवाय संबंध से परस्पर भिन्न धर्म और धर्मी का संबंध होता है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसे धर्म और धर्मी का ज्ञान होता है वैसे समवाय का नहीं होता। अगर यह कहें कि एक समवाय को मुख्य मानकर समवाय में समवायत्व को गौण मानेंगे, तो यह काल्पनिक मात्र है तथा इसमें लोकविरोध
भी है।
कार्य की एकांत नित्यता में पुण्य, पाप, परलोक गमन आदि सब असंभव हो जायेंगे।' 1. सांस्यकारिका 22. 2. वही 11 3. कार्यद्रव्यमनादि...अनंततां व्रजेत आ.मी. 1.10 4. न न धर्मधर्मित्व...लोकबाध: अन्ययो. व्य. 7. 5. पुण्यपापाक्रिया...तेषां न आ.मी. 3.40
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